पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
रुक्मिणी भी लीलापूर्वक आगे बढ़ीं। कृष्ण की बांह पकडी और पोटली ले ली, "इतने स्वार्थी मत बनो प्रिय! भाभी ने यह सौगात कोई आपके लिए ही तो नहीं भेजी।"
"चिऊड़ा है भाभी!" सुदामा से कहे बिना नहीं रहा गया, "आपको शायद अच्छा न लगे।"
"अच्छा क्यों नहीं लगेगा?" रुक्मिणी बोली, "ये ऐसी लीला करने लगते हैं तो लोग समझते हैं कि सौहार्द केवल इन्हीं में है। मैं लीला नहीं कर सकती तो क्या, स्नेह से भेजी हुई वस्तु का मूल्य तो मैं भी समझती ही हूं।" रुक्मिणी जाने के लिए मुड़ी, "मैं अपनी बहिनों के साथ बांटकर इसे खाऊंगी।"
"अच्छा सुनो!' कृष्ण पीछे-से पुकारकर बोले, "सत्यभामा को कहना, आज भोजन बढ़िया बनना चाहिए। सुदामा को पसन्द न आया तो उसकी अपकीर्ति दूर-दूर तक फैल जायेगी।"
"सुदामा कब से अच्छे भोजन का पारखी हो गया," सुदामा उदासीन स्वर में बोले, "कि उसकी पसन्द-नापसन्द का इतना महत्त्व हो।"
"क्यों? क्या दर्शन बखानते-बखानते रसना स्वाद की परख भूल जाती है?"
"यहां रसना है किसके पास? अपने पास तो केवल वाक् ही है।"
सहसा कृष्ण का लीलामय रूप तिरोहित हो गया। गम्भीर होकर बोले, "हम क्या बात कर रहे थे सुदामा?"
"तुम्हारे विवाहों की बात! कितने हो गये अब तक?"
"मेरे विवाह!" कृष्ण की गम्भीरता गहरा गयी, "व्यक्ति कृष्ण का प्रेम के आधार पर केवल एक ही विवाह हुआ है-रुक्मिणी से। शेष तो राजनीति और सम्बन्धों का निर्वाह है।" सहसा वे सचेत हुए, "पर मित्र! गलत मत समझना। जाम्बवती और सत्यभामा से मेरा कोई मनमुटाव नहीं है। वे भी मेरी उतनी ही प्रिय रानियां हैं। मैं उनसे भी उतना ही प्रेम करता हूं।"
"प्रेम क्या बांटा जा सकता है?" सुदामा के स्वर में आपत्ति थी।
"कोई इतना अविभाज्य भी नहीं है।" कृष्ण मुस्कराए, "या मुझमें प्रेम की मात्रा बहुत अधिक है।"
सुदामा मौन बैठे उनको देखते रहे।
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