पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"अच्छा! मैं स्नान कर आऊं।"
कृष्ण अभी तक अपनी गम्भीर मुद्रा छोड़ नहीं पाये थे। पर वे स्वयं जाकर सुदामा को स्नानागार तक छोड़ आये।
कृष्ण आकर पुनः कक्ष में बैठे, तो उनकी अपनी चिन्तन-प्रक्रिया चलती चली गयी।...
ने पूछा नहीं, किन्तु उसके मन में अवश्य ही ब्रज की गोपियां भी रही होंगी। कृष्ण का नाम आते ही, लोगों के मन में गोपियों की चर्चा भी जाग उठती है। कृष्ण का मन भीतर-ही-भीतर अपना अतीत कुरेदने लगा था...
कृष्ण ने अपने लड़कपन से ही यह अन्तर पहचान लिया था। डील-डौल में बहुत अन्तर होने पर भी, बलराम का उनसे वय में बहुत अन्तर नहीं था। किन्तु, स्वभाव का अन्तर इतना स्पष्ट था कि छिपाए भी नहीं छिप सकता था। बलराम मां के पास बैठने में, मां के साथ कहीं जाने में झेंपते थे। शायद उन्हें लगने लगा था कि वह बहुत बड़े हो गये हैं और मां के साथ सम्बन्ध छोटे बच्चों का ही होता है। कृष्ण को इसमें तनिक भी संकोच नहीं होता था। वे माता यशोदा के पास घण्टों बैठे रह सकते थे। उनके पास बातों की कमी नहीं थी। कितना कुछ होता था, मां को बताने को, सुनाने को। उन्हें मां के साथ बाहर जाने में भी अच्छा लगता था; संकोच तो नहीं ही होता था-एक प्रकार से गर्व की अनुभूति होती थी। लोग देखेंगे कि कैसी हैं उनकी मां। सुन्दर स्वस्थ, समझदार और ममतामयी। ऐसी मां पर किसको गर्व नहीं होगा।
अपनी मां के अतिरिक्त, कृष्ण पड़ोस की महिलाओं के पास भी बैठ आया करते थे। किसी के साथ बातें करते रहते, किसी के काम में हाथ बंटाते। किसी का कुछ बना आते, किसी का कुछ बिगाड़ आते। पर कौन उनसे रुष्ट होता-कोई काकी थी, कोई मौसी, कोई ताई थी, कोई बुआ...कोई आजी थी, कोई नानी...सारा नन्दगाँव उनका अपना था।
बलराम, या अपने घर पर रहते या वन में; पर कृष्ण किसी के भी घर में हो सकते थे। उन्हें कभी कहीं परायापन लगा नहीं। बलराम को एक बार माता रोहिणी ने अपनी भुजाओं में भरकर प्यार कर लिया था तो वे कितने लजा गये थे। गाल लाल हो गये थे और वे मुंह चुराकर भाग गये थे। पर, कृष्ण तो स्वयं ही माता की गोद में जा बैठते थे, उनसे लिपट जाते थे। माता कभी तो उन्हें कृत्रिम रोष दिखाती हुई, परे हटा देती थीं और कभी लिपटाकर चूम लेती थीं। कृष्ण के लिए यह मां का सहज प्यार था...इसमें संकोच क्या? कृष्ण की तब अपनी कोई बहिन नहीं थी, पर उन्हें नन्दगाँव की अनेक गोपियां अच्छी लगती थीं-अपनी बड़ी बहिन के समान। वे छोटे भाई के अधिकार से अनेक बार उनके पास जा धमकते थे और वे भी उन्हें अपना भाई मान लेती थीं। श्रावणी दीदी ने तो एक बार 'मेरा भैया' कहकर, सार्वजनिक रूप से उनका माथा चूम लिया था।
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