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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


कुछ और बड़े होने पर रूपा भाभी उन्हें बहुत अच्छी लगने लगी थीं। रूपा भाभी, देवा भैया की पत्नी थीं। अनेक बच्चे उन्हें काकी भी कहते थे। कृष्ण भी चाहते तो मज़े में उन्हें काकी कह सकते थे, पर कृष्ण ने उन्हें सदा भाभी ही कहा। उन्हें देखते ही कृष्ण के मन में प्रसन्नता का जैसे कोई उत्स फूट पड़ता; और प्रसन्नता ऊर्जा बन जाती। रूपा भाभी को देखते ही कृष्ण इतने वाचाल और चंचल हो उठते थे कि उन्हें भय होता कि कहीं कोई अटपटी बात न कह डालें। पर वे अपनी उस ऊर्जा का क्या करते। मन होता, बांसुरी में कोई आह्लादक राग छेड़ दें, या फिर जोर से नाचने लगें। रूपा भाभी एक बार मुस्कराकर उनसे कोई बात कर लेती तो वे धन्य हो जाते और यदि वह अपना कोई काम कह देतीं तो कृष्ण कृतकृत्य हो जाते। उन्हें लगता कि उनके जीवन का वह एक दिन सार्थक हो गया है...

तब तक बलराम और उनके मित्रों ने खेल को लेकर लड़कों और लड़कियों का बहुत झंझट डाल दिया था। तब तक जो बच्चे इकट्ठे खेला करते थे, उनमें से लड़कियों और लड़कों के खेल अलग-अलग हो गये थे। अलग ही नहीं-वे लोग एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी भी हो गये थे। किन्तु कृष्ण के व्यवहार में कहीं कोई अन्तर नहीं आया था। वे लड़कों के साथ जितना खेलते थे, लड़कियों के खेल में भी उतना ही रस लेते थे। कभी-कभी ललिता उन्हें छेड़ा करती, 'कृष्ण तो लड़की है।' 'चलो हूं, तो उससे क्या? तुमसे तेज़ रस्सी कूद सकता हूं। तुमसे ऊंचा झूला झूल सकता हूं। तुमसे अच्छा नाच सकता हूं।'

वैसे कृष्ण, बलराम भैया से भिन्न थे भी। कृष्ण अखाड़े में कुश्ती लड़ते थे। वन में गायें चराने जाते थे। हिंस्र पशुओं से भिड़ जाते थे। लोगों का संगठन करने की सोचते थे और फिर कृष्ण बांसुरी बजाते हुए, रासलीला करने लगते थे...पर बलराम भैया की गति न संगीत में थी, न नृत्य में। इनकी बात आते ही वे अलग हो जाते थे। कृष्ण वहां भी नायक थे और यहां भी। सारी रास-मण्डली गोपियों की हो तो भी अकेले कष्ण उनमें नाचते थे।...बलराम भैया और उनके मित्र चिढ जाते थे...'सारी गोपियों में एक कान्ह...।'

कृष्ण हंसा करते थे, ‘गोप हों तो भी उनमें कान्ह हैं और गोपियां हों तो भी...'

पर सबसे पहले कुछ भिन्न अनुभव हुआ था, जब रूपा भाभी की चहेती माधवी ने एक दिन राह किनारे रोक, उनके बहुत निकट आ, उनके कन्धे पर हाथ रखकर कहा था, "कृष्ण! मैं तुमसे प्रेम करती हूँ।"

माधवी कृष्ण को अच्छी लगती थी। बहुत सुन्दर थी माधवी। पर रूपा भाभी जैसी नहीं। कृष्ण हंस पड़े थे, "मैं भी तुमसे बहत प्रेम करता हं माधवी दीदी!" और जाने कस कृष्ण ने जोड़ दिया, "मैं तो रूपा भाभी से भी बहुत प्यार करता हूं।"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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