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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


और ऐसे ही एक दिन बातें करते-करते राधा कृष्ण को बहुत दूर ले गयी थी। वे चलते ही चले गये थे, बिना थके, बिना रुके। और सहसा राधा रुक गयी...

"कहीं बैठ जायें।"

"थक गयी!" कृष्ण ने चिढ़ाया, "तुम तो मुझसे भी अधिक बली हो।" "शरीर ठीक नहीं लग रहा।"

कृष्ण ने देखा : राधा का चेहरा सचमुच स्वस्थ नहीं था। पता नहीं, उनका ध्यान पहले क्यों इस ओर नहीं गया था। वे राधा की बातों में ही बहते रहे थे...

"तुम अस्वस्थ हो?"

"शायद।"

कृष्ण एक कुंज में जा बैठा, "जब अस्वस्थ थीं तो इतनी दूर चलने की क्या आवश्यकता थी?"

"तुमसे बातें करना अच्छा लग रहा था।" राधा ने सहज भाव से कहा था, "तुम नहीं जानते कृष्ण! जब शरीर अस्वस्थ हो या मन उदास हो, तो मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है। मन होता है, तुम मेरे पास ही बने रहो। क्षण को भी मुझसे अलग न हो।"

कृष्ण कुछ नहीं बोले, चुपचाप राधा को देखते रहे।

राधा खिसककर उनके पास आ गयी। उसने उनके कन्धे पर अपना सिर टिका दिया, "कृष्ण! मैं नहीं जानती कि यह सब क्या है। मैं क्यों तुम्हारे ही पास रहना चाहती हूं। क्यों मैं तुमसे ही बातें करना चाहती हूं। क्यों मैं चाहती हूं कि अन्य सब लोगों से अलग कर, तुम्हें अपने पास रख लूं । तुम किसी और के न रहो, केवल मेरे ही रहो...।'

राधा के लिए वैसे बैठना असुविधाजनक हो रहा था। उसने अपना सिर कृष्ण की गोद में रख दिया...

कृष्ण का शरीर उनके मस्तिष्क से विद्रोह कर रहा था। शरीर में मचलती बिजलियां जैसे अंगों को छीलती जा रही थीं। मन का आलोड़न-विलोड़न एक पीड़ादायक सुख बन गया था; किन्तु विवेक था कि उन्हें तनिक भी शिथिल नहीं होने दे रहा था : 'राधा अय्यन की वाग्दत्ता है...'

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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