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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


पिछले दिनों एक योगीराज ने बहुत शोर मचाया था कि वे अपनी योग-शक्ति से पानी पर चलकर दिखायेंगे। सुदामा तो देखने गये नहीं थे, पर उड़ाया यही गया था कि एक बड़ा नाला उन्होंने पानी पर चलकर पार किया था। पहले तो सुदामा की बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं करती कि सचमुच ऐसा कुछ हुआ होगा। प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय और त्रिकाल-सत्य हैं। उनकी न कोई अवहेलना कर सकता है और न वे किसी का कोई विशिष्ट अधिकार मानते हैं। इसलिए प्रकृति में चमत्कार नहीं होते। प्राकृतिक सत्य है कि पानी से हल्की वस्तु उस पर तैरती है और भारी वस्तु उसमें डूब जाती है। मनुष्य पानी से भारी होता है, इसलिए वह पानी में डूब जाता है; किन्तु यह प्राकृतिक सत्य है कि मनुष्य ने पानी में तैरने के सिद्धान्त खोज निकाले हैं। ये सिद्धान्त और कुछ भी नहीं हैं, सिवा इसके कि मनुष्य ने स्वयं को पानी से हल्का बनाये रखने की पद्धति खोज निकाली है। यहां प्राकृतिक सत्यों में कोई विरोध नहीं है, इसलिए इसमें कोई चमत्कार भी नहीं है। यदि कोई व्यक्ति कोई ऐसा ही प्राकृतिक नियम खोज निकालता है, जिसमें वह खड़ी अवस्था में भी पानी में तैर सकता है, तो वह एक नया आविष्कार हो सकता है, उसमें कोई चमत्कार नहीं है।

सहसा सुदामा के मन में एक दूसरा तर्क आया...और यदि यह मान भी लिया जाये कि किसी व्यक्ति ने वर्षों की साधना के पश्चात् कोई ऐसी पद्धति पा ली है, जिससे वह नदी पार कर सकता है तो उससे क्या...कोई भी नाविक अपनी नाव पर जितने लोगों को चाहे, बारी-बारी नदी पार करा सकता है। उस आध्यात्मिक शक्ति से कहीं उपयोगी वह भौतिक शास्त्र है, जो किसी भी व्यक्ति को किसी भी समय नदी पार करा सकता है।

तो फिर यह सारा आध्यात्मिक चिन्तन क्या है? मात्र कुछ कल्पनाजीवियों की कपोल कल्पना या सामान्य जन को धोखा देने का प्रयत्न? या जीवनी शक्ति की कमी के कारण संसार के संघर्षों से पलायन का प्रयत्न?

सुदामा चौंक उठे। यह कैसी बात मन में आयी है? यदि चमत्कारों, आध्यात्मिक शक्तियों तथा साम्प्रदायिक कर्म-काण्डों को दूर कर सोचा जाये तो क्या अध्यात्म मानव के मन को निर्मल और उदात्त नहीं करता? क्या वह कुछ अटल प्राकृतिक सत्यों और नियमों को खोजकर, मनुष्य को उनका सामना करना नहीं सिखाता? क्या यह सत्य नहीं है कि पशु धरातल पर जीना, मनुष्य के लिए शोभनीय नहीं है-उसे विवेक के धरातल पर जीना चाहिए। क्या यह भौतिक सत्य नहीं है कि मनुष्य में एक जीवनी शक्ति है, जिसे आत्मा कहते हैं और जीवनी शक्ति के रहते भर मनुष्य जीवित रहता है और उसके समाप्त होते ही, यह सष्टि उस मनुष्य के लिए समाप्त हो जाती है और वह मनष्य इस सृष्टि के लिए समाप्त हो जाता है। फिर वह आत्मा कहां जाती है, कौन जानता है। पदार्थ तो अपना रूप बदलते हैं। हिम, जल बन जाता है, जल वाष्प बन जाता है, और वाष्प फिर से हिम या जल बन जाता है। लकड़ी कोयला बनती है, कोयला राख। क्या वैसे ही

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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