पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
यह जीवनी शक्ति अपना रूप बदलती है और हम उसे पहचान नहीं पाते?
फिर यह जीवनी शक्ति तो सब मनुष्यों में है; सब प्राणियों में है : सब वनस्पतियों में है। कौन जानता है कि भविष्य में मनुष्य यह भी खोज निकाले कि जिन पदार्थों को आज हम निष्प्राण कहते हैं, उनमें भी जीवनी शक्ति है। कहीं धरती अन्न उपजाती है और कहीं वह बंजर होती है, बन्ध्या। कोई पर्वत हरा-भरा होता है और किसी पर घास की एक पत्ती भी नहीं होती। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मिट्टी का कोई ढेर जीवित हो और कोई मृत। किसी पहाड़ में जीवनी शक्ति हो और किसी में न हो। जहां तक यह जीवनी शक्ति है, वहां तक तो सब जीव एक ही हैं। सब में एक जैसे प्राण हैं। आग और आग में क्या भेद है? पानी और पानी में क्या अन्तर है, सिवा इसके कि किसी में अन्य पदार्थ घुले हुए हैं, किसी में नहीं।
तो सब जीवों में आत्मा तो एक ही हुई। क्या उन आत्माओं की समग्रता को हम परमात्मा नहीं कह सकते? समस्त जीवनी शक्ति की समग्रता को कोई नाम नहीं दिया जा सकता?...प्रकृति या...।
पर परमात्मा का यही रूप तो नहीं माना जा सकता। और भी अनेक रूप माने जाते हैं। क्या उसके रूप को किसी ने देखा है? सुदामा को लगा, इसके आगे तो दर्शन शास्त्र विभिन्न सिद्धान्तों में बंट जाता है। विवाद का क्षेत्र यहीं से आरम्भ हो जाता है। पर सुदामा तो ज्ञान-मार्गी हैं; और ज्ञान मार्ग तो समग्र जीवनी शक्ति, समग्र प्रकृति के सामूहिक रूप को ही ब्रह्म मानता है।
क्या ब्रह्म का यह स्वरूप समाज के लिए उपयोगी नहीं है? क्या वह एक सामाजिक दर्शन का रूप ग्रहण नहीं करता? जब प्रत्येक जीव की जीवनी शक्ति एक निश्चित अवधि तक चल पायेगी, किसी भी जीव की जीवनी शक्ति अनन्त काल तक नहीं चल पायेगी, तो मनुष्य इस प्रकृति को अपने लिए या अपने ही लोगों के लिए क्यों आरक्षित कर लेना चाहता है? वह क्यों नहीं समझता कि प्रकति का धन उन सब जीवों के भोग के लिए है, जो इस प्रकृति ने उत्पन्न किये हैं। सबको अपनी आवश्यकता भर, प्राकृतिक धन लेना चाहिए और उससे अधिक का लालच उन्हें नहीं करना चाहिए। संचय का अर्थ, दसरे जीवों को उनके अधिकारों से वंचित करना है। संचय से हमारा क्षय होता है। हमें न अपना क्षय करना है, न अन्य जीवों का। हमें तो प्रकृति से अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति करनी है और अन्य जीवों को उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोग करना है। इसलिए भोग का अधिकार उसका है, जो प्रकृति से पदार्थ प्राप्त करता है न कि उसका, जो दूसरों के श्रम का शोषण कर उत्पादन के स्थान पर संचय करता है।
समाज को एक स्वरूप ग्रहण करने के लिए किसी-न-किसी चिन्तन की आवश्यकता तो होगी ही। समाज के लिए चिन्तन आवश्यक है। प्रश्न यह है कि वह चिन्तन समाज में सहयोग को बढ़ा रहा है या शोषण को और गलत चिन्तन तो स्वयं ही प्राकृतिक सत्यों से टकराकर टूट जायेगा। जो समाज के लिए उपयोगी नहीं है, वह स्वयं ही नष्ट हो जायेगा।
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