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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुदामा की कल्पना में उनका मित्र कृष्ण आ खड़ा हुआ। कृष्ण इन बातों को बहुत पहले से समझता था। तभी तो उसने अपने बाल्यकाल में ही इन्द्र की पूजा के स्थान पर गोवर्द्धन की पूजा आरम्भ करवा दी थी। इन्द्र, वैदिक युग का एक काल्पनिक देवता था। काल्पनिक न हो तो ऐतिहासिक होगा; किन्तु वह वर्तमान का यथार्थ नहीं था। वर्तमान का यथार्थ तो गोवर्द्धन गिरि ही है। यमुना के कछारों में रहने वाली प्रजा के लिए कोई ऊंचा स्थान कितना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, यह तो यमुना की एक ही बाढ़ ने सिद्ध कर दिया था। अपनी विपत्ति के वे दिन यमुना-तटवासियों ने गोवर्द्धन की ऊंचाई पर ही काटे थे। गोवर्द्धन की पूजा...सुदामा का बुद्धिवादी मन हंसा...पूजा का क्या अर्थ है...सिवा इसके कि उस वस्तु का महत्त्व समझा जाये और उसके महत्त्व और उपयोगिता के लिए, उसका सम्मान किया जाये। पूजा के नाम पर गंगा में पुष्प और मिष्ठान्न अर्पित करने वाला व्यक्ति तो उसके जल को गन्दा ही कर रहा है; किन्तु जो व्यक्ति समझता है कि गंगा का जल यदि हिमालय की इस ओर बहने के स्थान पर, किन्हीं किरणों से हिमालय की उस ओर बह गया होता, तो गंगा-यमुना का यह मैदान मरुभूमि हो गया होता। वह व्यक्ति वास्तविक पूजा-भाव रखता है गंगा के प्रति। गंगा, मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक जल उसे देती है और अन्न उत्पन्न करने कि लिए भूमि की सिंचाई करती है। तभी तो गंगा के दोनों तटों पर बड़े-बड़े नगर बस गये हैं। राज्य स्थापित हो गये हैं। उसके तटों की भूमि अत्यन्त उपजाऊ हो गयी है...उसी भूमि को प्राप्त करने के लिए ही तो अनेक युद्ध होते हैं।

कृष्ण समझता था उपयोगिता की पूजा के दर्शन को। कृषि कर्म के लिए सबसे उपयोगी जीव गाय को भी इसलिए उसने पूज्य बना दिया। किन्तु जो कृष्ण परम्परा से पूज्य अनुपयोगी इन्द्र की अवहेलना कर गोवर्द्धन की उपयोगिता प्रचलित करा सकता है, वह किसी नये आविष्कार के कारण अनुपयोगी हो जाने पर गाय का सम्मान भी कम कर ही सकता है। कृष्ण वस्तुतः चिन्तक है, मौलिक चिन्तक, वास्तविक, सामाजिक, दार्शनिक।

कृष्ण के लीलाप्रिय भक्तों ने उसके राजनीतिक, सामाजिक दर्शन को लीलाओं में बदल दिया है। यादवों का मुख्य काम गो-पालन और दूध का व्यवसाय था। सुदामा नहीं जानते कि यह व्यवसाय का अतिरेक था या कंस का आतंक; पर तथ्य यही है कि ब्रज का सारा दूध मथुरा पहुंच जाता था। गोपालों के अपने बच्चों के लिए भी दुध-घी उपलब्ध नहीं था। कृष्ण ने दूध के इस विवेक-शून्य निर्यात का विरोध किया था। गोप तो फिर मान गये थे-भीरु गोपियां, कंस के क्रोध से बचने के लिए छिप-छिपकर दूध ले जाया करती थीं; या उन्हें धन का मोह अधिक था। उन्हें रोकने के लिए कृष्ण को अपने मित्रों की सहायता से मटकियां तोड़नी पड़ीं। इस सामाजिक, राजनीतिक संघर्ष को भक्तों ने कृष्ण का विलास बना दिया।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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