पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण से मिले कितने दिन हो गये सुदामा को। उनके मन में कृष्ण से मिलने की इच्छा हिलोरें लेने लगी। कभी-कभी तो ऐसा ज्वार उठता है मन में कि तत्काल चल पड़ें द्वारका की ओर। सुशीला भी बार-बार कहती है। बाबा की भी यही इच्छा थी। पर कृष्ण के बड़प्पन के कारण सुदामा उससे मिल नहीं पाते। उस सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, उस चिन्तक-विचारक और मित्र कृष्ण से मिलने की इच्छा तो होती है सुदामा की; किन्तु शूर कुल नायक, द्वारका की परिषद् के एकछत्र सम्राट, वैभवशाली कृष्ण-सुदामा के लिए पूर्णतः अपरिचित व्यक्ति हैं। और अब यदि सुदामा, कृष्ण से मिलने जायेंगे, तो उन्हें यादव श्रेष्ठ के पास ही जाना होगा। आश्रमवासी या गोपाल कृष्ण, अब उन्हें नहीं मिल सकता।
यदि कहीं कृष्ण आ जाता सुदामा से मिलने? सुदामा की कुटिया होती, दोनों मित्र होते और उनमें ज्ञान-योग और कर्मयोग को लेकर विवाद हो रहा होता। सुशीला थोड़ी देर उन लोगों के पास बैठकर विवाद में भाग लेती और फिर उठकर भोजन के प्रबन्ध में लग जाती। बीच-बीच में कभी अपना मत प्रकट कर जाती और कभी विवाद समाप्त करने का अनुरोध करती। पर वे दोनों अपने तर्कों पर अड़े रहते। अपने तर्कों को प्रमाणित करते, दूसरों के तर्कों को काटते। बाबा बता गये हैं कि कृष्ण ने द्वारका में गुरुकुल की स्थापना की है। उसने वहां अनेक दार्शनिकों, चिन्तकों, बुद्धिजीवियों को एकत्रित कर लिया है। वह उनमें बैठता है। तर्क-विर्तक करता है। पर सुदामा की यह ज्ञान-पिपासा कैसे बुझेगी। इस गंवई-गाँव मं जहां साक्षर व्यक्ति भी खोजने पर ही मिलते हैं, दार्शनिक विवादों के लिए व्यक्ति कहां मिलेंगे। सुदामा के ज्ञान-क्षेत्र में कहीं सूखा न पड़ जाये।
सुदामा का मन फिर सिद्धान्तों की भीड़ में खो गया। उन्होंने अपने मन में बड़ी सुविधा से ज्ञान-सिद्धान्त को ग्राम-प्रमुख के आक्रमण से बचा लिया था, किन्तु उनका अपना मन भी अनेक शंकाएं कर रहा था। ज्ञान-योग मनुष्य में वैराग्य उत्पन्न करता है। वैराग्य होने पर व्यक्ति न अधिक उत्पादन के लिए प्रयत्नशील रहता है, न प्रकृति और उनकी सम्पत्ति पर आधिपत्य जमाने और उसकी रक्षा के लिए। जब संसार माया है और उसके प्रति आकर्षण मोह है तो फिर व्यक्ति उसकी कामना क्यों करे? उसके लिए संघर्ष क्यों करे, कष्ट क्यों उठाये, प्राण क्यों दे? ज्ञानजनित वैराग्य तो न्याय सिखाता है। तो क्या त्याग हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है? त्याग? त्याग श्रेयस्कर तो है, पर शायद प्रकृति नहीं चाहती है कि मनुष्य त्यागी बने। सम्पूर्ण मानव-समाज त्यागी और कामनाशून्य हो जायेगा तो सृष्टि समाप्त हो जायेगी। प्रकृति, सष्टि को समाप्त नहीं होने देगी। त्यागी समाज भीतर से दुर्बल हो जाता है। उसकी प्रहारक शक्ति समाप्त हो जाती है। तब कोई दूसरा समाज उस पर आक्रमण कर देता है। उसे पराजित करता है और अपना दास बना लेता है। वह समाज, ज्ञानी और त्यागी होने के स्थान पर दास बन जाता है। अपमान सहता है। पीड़ित और शोषित होता है। भौतिक असुविधाएं सहता है। और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तड़पता और संघर्ष करता हुआ अपना सारा ज्ञान भूल जाता है। तो क्या लाभ ऐसे ज्ञान का, जो समाज को समर्थ बनाने के स्थान पर उसे दलित और शोषित बना देता है।
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