पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
क्या ज्ञान के इस दोष को दूर नहीं किया जा सकता? सुदामा का मन कृष्ण से मिलने को तड़प उठा। कृष्ण होता तो उससे बात करते।
इस सिद्धान्त में कहीं कोई मूलभूत दोष रह गया है।
सामने अपनी कुटिया देखकर, सिद्धान्तों की उठा-पटक सुदामा के मन से तिरोहित हो गयी। उन्हें याद हो आया कि वे कहां गये थे और क्यों गये थे। ग्राम-प्रमुख ने उन्हें भरसक अपमानित किया था और अन्त में क्या कहा था-यदि कभी गुरुकुल की स्थापना हो भी गयी तो उसके लिए कुलपति आचार्य राजधानी से आयेंगे...द्वारका से? क्यों? क्या राजधानी ने राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ ज्ञान का भी ठेका ले रखा है? विद्वान् और कहीं हो ही नहीं सकते? हमारे समाज पर राजनीति क्यों इतनी छाती जा रही है। राजनीतिक शक्ति इतनी महत्त्वपूर्ण हो गयी है कि और किसी की कोई प्रतिष्ठा ही नहीं रह गयी। ज्ञान- क्षेत्र का भी निर्णय अब राजनीति ही करेगी? आज तो कृष्ण बैठा है द्वारका में; पर कल कोई मूर्ख सत्ताधारी आ जाये तो इस देश में ज्ञान-विज्ञान विद्याध्ययन-सबका नाश हो जायेगा। मूों की नियुक्तियां आचार्यों के रूप में होंगी और गुरुकुलों से मूर्ख स्नातकों की सेनाएं, मूर्खता में प्रशिक्षित हो-होकर निकलेंगी। आवश्यक तो नहीं कि प्रत्येक शासक यह देखे कि समाज के लिए कैसा, कौन-सा और कितना ज्ञान उपयोगी होगा। अनेक शासक ज्ञान को उठाकर किनारे धर देंगे और अपने स्वार्थ के अनुकूल प्रचार को ही ज्ञान का नाम देंगे।
सुदामा ने पहले क्यों नहीं सोचा कि ज्ञान की उपलब्धि अध्ययन, चिन्तन, मनन तथा साधना से ही नहीं, राजनीतिक नियुक्तियों से भी हो सकती है। यदि शासक किसी व्यक्ति को किसी गरुकल का आचार्य नियक्त कर दे तो वह व्यक्ति स्वतः ही ज्ञानी मान लिया जाता है।
सुदामा को हंसी आ गयी-और इस समय राजनीति का सर्वोच्च सूत्रधार कृष्ण है-सुदामा का मित्र। आज सुदामा, कृष्ण के पास चले जायें तो वे जम्बूद्वीप के सबसे बड़े विद्वान हो जायेंगे। फिर वे जिस विद्वान को चाहें ज्ञान का सिरमौर बना दें, और चाहें धूल में मिला दें। जिस ग्रन्थ की चाहें प्रशंसा कर दें, और जिसकी चाहें उपेक्षा कर दें। राजनीतिक विद्वान् होकर जिस मूर्ख को चाहें पुरस्कृत कर दें और जिस पण्डित को चाहें वंचित और अपमानित कर दें।
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