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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...

पाँच


सुदामा कहीं जाने को तैयार हो रहे थे। तैयार होने को बहुत कुछ नहीं था। न स्नान से पहले वे उबटन मलते थे; न बहुत से लेप लगाने को थे; न स्नान के लिए बहुत सारी सुगन्धियों का प्रयोग करना था। धारण करने के लिए आभषण भी नहीं थे। केश-सज्जा से भी उन्हें कोई विशेष प्रेम नहीं था; घर में उसके लिए पर्याप्त उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। उन्हें तो काजल तथा तम्बूल का भी कोई चाव नहीं था। प्रसाधन सामग्री के नाम पर जब सुशीला के लिए ही कुछ नहीं था तो सुदामा के लिए तैयार होने में बहुत समय क्या लगना था। बस, शरीर पर दो गागर पानी ही तो उंडेलना था और गीली धोती को सूखी धोती से बदल लेना था।

किन्तु फिर भी एक ही दृष्टि में सुशीला समझ गयी थी कि वे कहीं जाने वाले थे। जिस दिन उन्हें कहीं बाहर जाना होता, वे अपने ग्रन्थ समेटकर एक ओर रख देते थे। ताल-पत्रों को बाध देते थे। उनकी सन्ध्या-उपासना. चिन्तन-मनन में एक प्रकार की त्वरा आ जाती थी। उनकी स्थिरता, हल्की-सी चंचलता में बदल जाती थी।

वे कुछ अधिक ही उत्साहित लग रहे थे। एक प्रकार की उत्तेजना उनके अंग-प्रत्यंग से आभासित हो रही थी। सुदामा के साथ ऐसा कभी-कभार ही होता था। वे बहुत गतिशील नहीं थे। स्वभाव से अभ्रमणशील और घर-घुस्सू ही थे। पर, अध्ययनशील प्राणी तो ऐसा ही हो सकता है-सुशीला सोचती-यदि वे दिन-भर घूमते-फिरते रहेंगे, लोगों से मिलते-जुलते रहेंगे और उस मेल-जोल के परिणामस्वरूप, घर पर भी लोगों का आवागमन लगा रहेगा, तो वे अध्ययन कब करेंगे और चिन्तन-मनन कब होगा। सुशीला को सुदामा की असामाजिकता से कोई शिकायत नहीं थी। अच्छा ही है कि सुदामा घर-घूस्सू थे; अन्यथा घर पर आने वाले अतिथियों का सत्कार करने के साधन कहां से आते।

सामान्यतः जब कभी उनके कहीं जाने की बात उठती तो वे मना कर देते और कभी जाना ही पड़ता, वे भरसक उसे टालते रहते; और जब टालना असम्भव हो जाता तो उनके मन की स्थिरता नष्ट हो जाती। एक प्रकार की व्याकुलता उन्हें घेर लेती। वे जाने की तैयारी भी करते रहते और मन-ही-मन अपने-आप से लड़ते भी रहते। थोड़ी देर में मन की खीझ उनके व्यवहार में भी प्रकट होने लगती।

ऐसा तो कभी-कभार ही होता था कि सुदामा उत्साह से कहीं जायें। जब कभी लगता था कि बाहर जाकर ही उनका लाभ है; वह उनकी ऊर्जा का अपव्यय नहीं है, तब ही बाहर निकलने के प्रति उनका प्रतिरोध समाप्त होता था।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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