पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा को लगा, उनसे ज़्यादती हो गयी है। ठीक कहती है सुशीला, जो सुदामा चाहते हैं, वह यहां उपलब्ध नहीं है और जो उपलब्ध है, वह सुदामा लेना नहीं चाहते। किन्तु निरक्षर अथवा अर्द्धशिक्षित मूढ़ ब्राह्मणों के समान, अपनी जाति को बेच खाना ...यही करना था तो यह जीवन, ग्रन्थों और विद्वानों को अर्पित करने का क्या लाभ? गुरु सांदीपनि के आश्रम तक जाकर, अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष कठिन तपस्या में बिताने का क्या अर्थ? आशीर्वाद के दो-चार श्लोक, लोगों के विवाह, मुण्डन तथा यज्ञोपवीत संस्कार या फिर किसी मन्दिर में पुजारी बनकर बैठ जाते-ग्राम-प्रमुख ने यही तो कहा था कि वे कर्म-काण्डी ब्राह्मण उनके अधिक काम के थे।
पर सुशीला! गृहस्थी भी एक तपस्या है। स्वाभिमान का हनन, अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध समझौता है।
"तो कहां जा रहे हैं?" सहसा सुशीला ने पूछा।
सुदामा की नींद टूटी।
"नगर में आचार्य ज्ञानेश्वर पधारे हैं।'' सुदामा का स्वर अनायास ही उल्लसित हो उठा, "आचार्य ज्ञानेश्वर के दो-एक ग्रन्थ मैंने देखे हैं। जटिल गुत्थियों को सुलझाने की चमत्कारिक प्रतिभा है उनमें। उनके मुख से उनके विचार सुनना एक अद्भुत अनुभव होगा।' सुदामा की आँखों में चमक आयी, "अपने नये ग्रन्थ के कुछ अध्याय साथ लिये जा रहा हूं। सम्भव हुआ तो आचार्य को सुनाऊंगा, उनकी प्रतिक्रिया पाकर मुझे बहुत लाभ होगा। आगे के अध्याय लिखने में सहायता मिलेगी।" सुदामा का स्वर भाव-विह्वल हो उठा, "तुम जानती ही हो सुशीला! आचार्य ज्ञानेश्वर ने भक्ति-योग पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है। मैं ज्ञान-योग सम्बन्धी अपने विचार उनके सामने रखूगा। कुछ विचार-विमर्श भी होगा ही। सम्भव है, कृष्ण के कर्मयोग की भी चर्चा हो जाये। कई बार वर्षों का अध्ययन भी उन धुंडियों को नहीं खोल पाता, जिन्हें विद्वानों की कुछ क्षणों की संगति खोल देती है।"
सुदामा शायद अभी कुछ और भी कहते; किन्तु सुशीला ने उसकी प्रतीक्षा नहीं की। बोली, "आप वहीं जायें प्रिय! ऐसे विद्वान् कब-कब मिलते हैं।"
"दुर्लभ अवसर है।" सुदामा अपनी उमंग में बोले, और अपने लिखे हुए कुछ ताल-पत्र समेटने लगे।
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