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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुशीला के मन में आया, कहे, 'जाओ प्रिय! तुम बने ही किसी और मिट्टी के हो। गृहस्थी और आजीविका, ये समस्याएं तुम्हारे लिए नहीं हैं।' पर उसने स्वयं को रोक लिया। उसकी कल्पना में गृहस्थी की चिन्ताओं को ले, पति का अपने-आपसे संघर्षरत, दुःख से मलिन रूप; तथा आचार्य ज्ञानेश्वर से विचार-विमर्श की चर्चा करता हुआ उल्लसित चेहरा, दोनों साथ-साथ उभरे। वह पति को दुखी नहीं करना चाहती थी। यह पहला अवसर नहीं था; उसने बार-बार सुदामा के इन दोनों रूपों को देखा था और बार-बार अनुभव किया था कि मछली जल में ही जीवित रह सकती है। सुदामा को उनके ज्ञान-संसार से खींचकर व्यावहारिक जगत् में लाने का प्रयत्न, उसकी भूल थी।

नगर तक आने में सुदामा को काफी समय लगा।

आयोजन-स्थल पर की भीड़ का अनुमान उन्हें दूर से ही हो गया। ग्राम में किसी भी अवसर पर बहुत बड़ी भीड़ नहीं होती थी। जनसंख्या ही कितनी थी। कोई मेला-ठेला होता तो सब लोग इकट्ठे होते थे। पर वहां खुली जगह थी। कितने भी लोग एकत्रित हो जाते, धक्के-मुक्के की स्थिति नहीं आती थी। नगरों में स्थान कम होता है और लोग अधिक आ जाते हैं...

सामान्यतः सुदामा भीड़ से घबराते थे और जहां भीड़ होने की सम्भावना होती थी, वहां जाना ही नहीं चाहते थे। किन्तु, आज भीड़ का आभास होते ही उनके मन में एक पुलक-सी जाग उठी। पहलवानों का कोई दंगल हो, कोई अश्व-कौतुक हो, कोई मेला हो, साभिनय नृत्य करने वाली कोई नर्तकी हो, तो कितनी भीड़ एकत्रित हो जाती है। नगरी के लोग तो आते ही हैं, आसपास के ग्रामों से भी जनसाधारण आ जाते हैं। और यदि ज्ञान-चर्चा के लिए कोई गोष्ठी आयोजित हो, किसी आचार्य का व्याख्यान हो, या विद्वानों का कोई सम्मेलन हो, तो एक छोटे-से कक्ष को भरने के लिए भी पर्याप्त श्रोता नहीं मिल पाते। जो आते भी हैं, उन्हें सायास घेर-घेर कर लाया जाता है और वे भी आयोजन के बीच में से उठ-उठकर भागने लगते हैं, "क्षमा कीजियेगा, घर में कोई अतिथि आये हैं।" या, "मेरी पत्नी प्रतीक्षा कर रही होगी। हमें उसके मायके जाना है।" निर्लज्ज! सीधे से नहीं कहते कि हमें तो वे आयोजन ही प्रिय हैं, जिनसे हमारी पशु-वृत्तियां ही तृप्त होती हैं। ऐसे आयोजनों में तो पत्नी और बच्चों के साथ जायेंगे, धन व्यय करके जायेंगे; और जहां आत्मिक विकास, ज्ञान अथवा सौन्दर्य-बोध की तृप्ति की चर्चा हो, वहां से वन के पशुओं के समान बिदकते हैं। फिर ऐसे ज्ञान-आयोजनों में न खान-पान होता है, न सुरा का आकर्षण। ऐसे स्थान पर प्रजा क्यों आयेगी।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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