पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
भवन के भीतर प्रवेश कर सुदामा ने चकित होकर देखा : इतना बड़ा सभागार। वे विभिन्न कार्यों से नगर में तो कई बार आये थे; किन्तु यह सभागार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। तो फिर कैसे पता चलता इसके विस्तार-प्रस्तार का। वस्ततः आज पहली बार ही इस सभागार में किसी विद्वान् का व्याख्यान हो रहा था; अन्यथा अब तक तो यहां व्यापारियों की पान-गोष्ठियां ही हुआ करती थीं। सुदामा का उत्साह फिर से लौट आया था। यह बहुत शुभ लक्षण था कि अब विद्वानों को भी इस योग्य समझा जाने लगा था कि उनके व्याख्यान बडे-बडे सभागारों में करवाये जायें और वहां इतने दर्शक-श्रोता इकट्ठे हों।
सुदामा ने बैठने के लिए स्थान खोजने की इच्छा से दृष्टि घुमायी : आगे की कुछ पंक्तियों में ऊंचे आसन थे, उनके पीछे भूमि पर आसन बिछाये गये थे; और उनके पीछे दरियां बिछी हुई थीं।
एक युवती सुदामा की ओर बढ़ी।
"आर्य! आप इनमें से किसी पर बैठ जायें।"
सुदामा की आँखों ने उसकी अंगुली का अनुसरण किया। उसका संकेत, भूमि पर बिछे हुए आसनों से लेकर दरियों तक फैला था।
सुदामा ने उस युवती की ओर देखा : निश्चय ही, वह कोई परिचारिका नहीं थी; किसी धनी घर की कन्या थी। उसके वस्त्राभूषण तथा उसका आत्मविश्वास...किसी परिचारिका का ऐसा श्रृंगार नहीं हो सकता। विद्वानों की गोष्ठियों और सभाओं में ऐसी सुन्दरियां कब से सम्मिलित होने लगीं?
पर दूसरे ही क्षण सुदामा के मन का आक्रोश जागा। उन्हें लगा कि वर्षों के अभ्यास से अर्जित किया गया उनका संयम और अनुशासन आहत हो उठा है। यह युवती सुदामा को नहीं जानती। जानने का कोई कारण भी नहीं है और प्रयास भी नहीं। उसने अभी तक श्रृंगार और प्रसाधनों की ही शिक्षा पायी होगी! दर्शन, अध्यात्म, काव्य और व्याकरण से उसका क्या सम्बन्ध! फिर वह सुदामा को कैसे जानती! सुदामा, राज्य द्वारा प्रतिष्ठा-प्राप्त राजकीय विद्वान तो है नहीं, जिन्हें ऐसे लोग भी जानते हों। उन्हें तो वे ही पाठक जान सकते हैं, जो खोज-खोजकर नये ग्रन्थ पढ़ते हैं और उनके लेखकों को याद रखते हैं। सुदामा का परिधान भी उन्हें विशिष्ट व्यक्ति नहीं बनाता। उनके साथ कोई सेवक-परिचारक भी नहीं है। जाने उसने सुदामा को क्या समझा है।
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