पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा स्वयं अपने लिए स्थान का चुनाव करते तो कदाचित् किसी ऐसे उपेक्षित-से स्थान पर बैठते, जहां किसी की दष्टि भी उन पर न पड़ती। वे आचार्य ज्ञानेश्वर के विचार सुनने आये थे। विचार, वे कहीं भी बैठकर सुन लेंगे। उसके लिए किसी ऐसे स्थान पर बैठने की आवश्यकता नहीं है, जहां लोगों का ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो। उनका विचार था कि बाद में वे आचार्य से मिलकर थोडा समय मांगेंगे, ताकि उन्हें अपनी कछ कृतियां दिखा सकें। भीड़-भाड़ में तो उनसे कोई बात हो नहीं पायेगी।
पर इस युवती द्वारा उनकी यह अवहेलना!
"और आगे के इन ऊंचे आसनों पर कौन बैठेगा?" सहसा ही सुदामा ने एक उद्धत बालक के समान पूछा।
सुदामा की मुद्रा देख, तरुणी किंचित् हतप्रभ हुई; किन्तु तत्काल ही स्वयं को संभालकर बोली, "कुछ विशिष्ट अतिथि बाहर से आने वाले हैं, वही बैठेंगे।"
सुदामा के मन में आया कि वे सभागार की एक परिक्रमा करें और सभा के आयोजकों को खोजकर, उन्हें अपना परिचय दें और तब उचित स्थान पर बैठाये जाने की मांग करें। आखिर यह सारा आयोजन था किसलिए? विद्वानों के व्याख्यानों जैसे आयोजनों में ही यदि विद्वानों की उपेक्षा होगी, तो क्या होगा यहां? वस्त्राभूषणों, परिचारकों तथा रथों की प्रदर्शनी? किसी व्यावसायिक नटी के कामुकतापूर्ण प्रदर्शनों तथा विद्वानों के व्याख्यान-आयोजनों के वातावरण में कुछ भेद तो होना ही चाहिए। दोनों प्रकार के आयोजनों में अभ्यागतों के महत्त्व की कसौटी में कुछ अन्तर होगा या नहीं?
किन्तु सुदामा के भीतरी अनुशासन ने उनकी उद्धतता को दबा दिया। इतना अहंकार क्यों जाग रहा है उनमें? किस बात से पीड़ित हुए हैं वे? युवती उन्हें नहीं जानती, अतः मंच से दूर बैठा रही है। वे वहीं बैठ जायें। आचार्य ज्ञानेश्वर के विचार तो वहां भी सुने ही जा सकेंगे। वे इतने महत्त्वाकांक्षी कब से हो गये कि उन्हें सभा की प्रथम पंक्ति में ही स्थान मिलना चाहिए। प्रथम पंक्ति में बैठने मात्र से, उन्हें क्या उपलब्धि हो जायेगी? महत्त्व व्यक्ति का होता है या आसन का? सुदामा को ऐसे आसन की खोज नहीं है, जिस पर बैठकर वे महत्त्वपूर्ण हो जायें; उन्हें तो ऐसे ज्ञान की खोज है, जिसको पाकर वे जिस मंच पर बैठें, वह मंच ही महत्त्वपूर्ण हो उठे।
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