पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
मन-ही-मन अपने-आपसे ठेलम-ठेल करते हुए, सुदामा एक कोने में बैठ गये। मन कुछ स्थिर हुआ तो उन्होंने अपने आसपास दृष्टि डाली। विभिन्न प्रकार के अनेक लोग उनके आसपास बैठे हुए थे। सुदामा का विचार था कि ऐसी गोष्ठियों में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र से सम्बन्धित लोग ही होंगे। पर यहां तो सम्भव है कि लोग इसी क्षेत्र के हों, या उनकी भक्ति-योग में रुचि हो। वैसे आजकल भक्ति-योग कोई दार्शनिक सिद्धान्त ही तो नहीं रह गया है। व्यावहारिक भक्ति भी तो चल पड़ी है। सम्भव है कि ये लोग भक्ति-मार्ग में आस्था रखते हों और उसी दृष्टि से आये हों। फिर सुदामा ही कहां सबको जानते हैं। कितनी गोष्ठियों और सम्मेलनों में जाते हैं व उनका जन-सम्पर्क है ही कितना? उनके जैसा घर-घुस्सू आदमी, कितने लोगों को पहचानेगा?
सहसा उनकी दृष्टि अगली पंक्ति में बैठे भृगुदास पर पड़ी। भृगुदास उन्हीं के गाँव का ब्राह्मण है। उन्हीं के टोले में रहने वाला। उसकी कुटिया उनकी कुटिया से थोड़ी ही दूर थी। तो उसकी भी रुचि है ज्ञान-सम्मेलनों में। सुदामा तो उसे बस आशीर्वाद देने वाला ब्राह्मण ही समझते थे।
सुदामा उसके पास खिसक आये। उन्होंने हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।
"ओह सुदामा!" उसने और कुछ नहीं कहा।
सुदामा को कुछ अटपटा लगा। दो परिचित व्यक्ति इस प्रकार साथ-साथ बैठे हों और परस्पर कोई बात न करें...यह असभ्यता थी। कुछ बातचीत तो.होनी ही चाहिए।
"अच्छा है कि हमारे गाँव के निकट भी ऐसी गोष्ठियां होने लगीं।" सुदामा धीरे-से बोले, "नहीं तो ज्ञान-चर्चा का अवसर ही नहीं मिलता था।"
भृगुदास ने उन्हें कुछ तीखी दृष्टि से देखा, "यहां क्या होंगी ज्ञान-गोष्ठियां। ज्ञान-चर्चा तो द्वारका में होती है।"
"द्वारका!" सुदामा के मुख से अनायास ही निकला।
"हां! मैं वहां जाता-आता रहता हूं।" भृगुदास के स्वर में गर्व झलक आया था, "मैं वहां गुरुकुल में ही ठहरता हूं। एक उपाध्याय मेरे मित्र हैं। कल फिर जाने वाला हूं।"
"द्वारका!" इस बार सुदामा ने मन-ही-मन कहा, "यह भृगुदास भी...।"
भृगुदास ने सुदामा के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह बोलता चला गया, "कुछ सीखना हो तो व्यक्ति को राजधानी जाना चाहिए। यहां गंवई-गाँव में क्या रखा है। यहां जो लोग आचार्य बनकर पुजते हैं, वहां उन्हें कोई पूछता भी नहीं है। मैं तो इन लोगों से बात भी नहीं करता," उसने रुककर सुदामा को देखा, "आज तो यूं ही चला आया कि चलो ज़रा रौनक-मेला देख आयें।"
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