पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"हां!" सुदामा समझ नहीं पा रहे थे कि वे क्या कहें।
"मैं तो प्रतिमास द्वारका जाता हूं।" भृगुदास बोला, "अपनी ज्ञान की प्यास तो वहीं बुझती है। यहां तो रेंडी के पौधे ही वृक्ष बने हुए हैं।"
आचार्य ज्ञानेश्वर और द्वारका से आये राजपुरुष एक साथ ही सभागार में पधारे। सुदामा की इच्छा हुई कि आचार्य के निकट जाकर, बिना परिचय के भी, उन्हें प्रणाम तो कर ही लें। विद्वानों के निकटदर्शन भी महत्त्वपूर्ण होते हैं। और फिर पूज्य-पूजन तो किसी भी भले आदमी का कर्तव्य है। किन्तु आचार्य तथा उस राजपुरुष को घेरे हुए इतनी बड़ी भीड़ चल रही थी कि उन तक पहुंचना, सुदामा को असम्भव लगा। प्रयत्न करते तो कदाचित् भीड़ का धक्का उन्हें सागर की बड़ी लहर के थपेड़े के समान लगता और वे अपमान की पीड़ा की कचोट मन में लिये लौट आते। वे मन मारे बैठे रहे। सभा के पश्चात् ही मिल लेंगे।
आचार्य ज्ञानेश्वर तथा राजपुरुष मंच पर बैठ गये थे। उनके आसपास चार-पांच व्यक्ति और भी बैठे थे। उनमें से दो-तीन को तो सुदामा पहचानते ही नहीं थे। सम्भव है, वे लोग भी बाहर से आये हों। शेष को सुदामा पहचानते थे-वे लोग नगर के विद्वानों में से नहीं थे। उन्हें लोग दार्शनिक, विद्वान्, कवि अथवा ऋषि के रूप में कम, धनाढ्य श्रेष्ठियों और राजपुरुषों के चाटुकार तथा दरबारी विद्वान् के रूप में ही अधिक जानते थे। उनमें और अनेक गुण हो सकते हैं, पर न विद्वत्ता थी, न स्वाभिमान।
सुदामा का मन खट्टा हो गया। जहां ऐसे लोग महत्त्वपूर्ण मान लिये जायें, वहां वास्तविक विद्वानों का क्या सम्मान होगा। इसका तो एक ही अर्थ है कि सभा के आयोजकों को या तो विद्वानों की पहचान नहीं है या भृगुदास ठीक ही कह रहा था कि वे विद्वानों का सम्मान करना ही नहीं चाहते। आगे के सारे आसन भी भर गये थे; किन्तु उन पर भी विद्वानों के स्थान पर श्रेष्ठियों के परिचारक और राजपुरुषों के अंगरक्षक ही अधिक दिखाई पड़ रहे थे।
सुदामा को लगा, आज उनकी दृष्टि छिद्रान्वेषण में ही लगी हुई है। वे यहां दर्शनशास्त्र के उच्चतम सिद्धान्तों की व्याख्या सुनने आये हैं या यह देखने कि किस व्यक्ति को कौन-सा आसन दिया जाता है। ये छोटी-छोटी बातें उनके लिए नहीं हैं। यह सब तो सामाजिक शिष्टाचार है। यदि आयोजकों को इसका ज्ञान नहीं है, तो क्या हुआ। समझदार व्यक्ति को चाहिए कि सार-तत्त्व ग्रहण करे और शेष सब थोथा जानकर छोड़ दे।
सुदामा बड़ी व्यग्रता से सभा की कार्रवाई आरम्भ होने की प्रतीक्षा करने लगे।
संयोजक महोदय ने सभा की कार्रवाई आरम्भ करने की घोषणा की और आचार्य ज्ञानेश्वर से प्रार्थना की कि वे राजपुरुष को माल्यार्पण करें।
सुदामा सन्न रह गये।
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