पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
यहां आचार्य का व्याख्यान होने वाला है या राजपुरुष का सम्मान? यदि यह राजपुरुष, आचार्य को माल्यार्पण करता तो आचार्य का सम्मान भी बढ़ता और राजपुरुष भी अपनी गुण ग्राहकता के लिए सम्मानित होता; किन्तु माल्यार्पण कर रहे हैं आचार्य। कोई भी कहेगा कि उन्होंने विद्वत्ता को अपमानित किया है; और कौन वह अपने से छोटे को स्नेह देने अथवा आतिथेय धर्म निभाने के लिए माल्यार्पण कर रहे हैं। वे तो स्वयं अतिथि हैं और सीधे-सीधे चाटुकार भांडों के समान खीसें निपोर रहे हैं और राजपुरुष भी क्या लग रहा है, विद्वानों के सिर पर चरण धरता हुआ, उन्हें अपमानित करता हुआ आततायी।
सहसा सुदामा को लगा कि सभा का वास्तविक रूप उनके सम्मुख प्रकट हो गया है। आरम्भ से अब तक जिन-जिन बातों पर ये चौंके थे, या जो बातें उन्हें आपत्तिजनक लगी थीं, उनमें कुछ भी तो वैसा नहीं था। वह तो सभा के स्वरूप को समझने में उनकी भूल मात्र थी। यदि आरम्भ से ही उन्होंने समझ लिया होता कि यह सारा समारोह आचार्य ज्ञानेश्वर के व्याख्यान के लिए नहीं, इस नवागंतुक राजपुरुष के सम्मान के लिए है और आचार्य ज्ञानेश्वर का सम्मान तो नाटकमात्र है तो उन्हें किसी भी बात पर आश्चर्य न हुआ होता। यह विशाल सभागार उसी राजपुरुष के लिए था। सभा में आने वाले ये धनाढ्य श्रेष्ठि, जिनके रथ बाहर खड़े थे, और जिनकी तरुणी पुत्रियां, सभा में लोगों का स्वागत-सत्कार करती दिखाई पड़ रही थीं-आचार्य के लिए नहीं, राजपुरुष के लिए आये थे। मंच पर बैठे लोग राजपुरुष के सम्मुख जैसे बिछे जा रहे थे। सभागार में राजपुरुष के अंगरक्षकों का भी ऐसा सत्कार हो रहा था, जैसे वे आचार्य ज्ञानेश्वर के गुरु हों।
तभी आचार्य ज्ञानेश्वर ने अपने स्थान से उठकर बड़े विनीत भाव से राजपुरुष के गले में पुष्पमाला पहना दी और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनके हाव-भाव चीख-चीखकर कह रहे थे कि राजपुरुष को माल्यार्पण कर वे धन्य हो गये हैं और यदि राजपुरुष को आपत्ति न हो तथा संयोजकों को अटपटा न लगे तो वे राजपुरुष के पांव छूकर धन्य होना भी पसन्द करेंगे।
सुदामा को जैसे बिच्छू का डंक लगा। आचार्य ज्ञानेश्वर का यह रूप। कहां उनके वे ग्रन्थ और कहां उनका यह आचरण। इस वृद्ध दार्शनिक को क्या यह शोभा देता है कि वह इस युवा राजपुरुष के प्रति अपनी ऐसी भक्ति दिखाये? सुदामा के मन में आचार्य के प्रति वितृष्णा जाग रही थी।
आचार्य के बैठ जाने के बाद, लोगों पर माल्यार्पण का दौरा पड़ गया है। राजपुरुष सर नीचा किये, चुपचाप बैठा रहा और लोग उस पर मालाओं का ढेर लगाते रहे। उसने एक बार दृष्टि उठाकर यह भी नहीं देखा कि किस-किसने उसके गले में माला डाली। उसके झुके हुए चेहरे पर एक स्पष्ट वितृष्णा थी और उसे सायास थामे रहने का भाव स्पष्ट था कि वह यह नहीं मान रहा था कि उसके गले में माला डालकर लोग उसका सम्मान कर रहे हैं। वह मालाएं स्वीकार कर उन पर कृपा कर रहा था। सत्ता का दर्प छिपाये नहीं छिप रहा था।
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