पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
माल्यार्पण हो चुका तो आचार्य ज्ञानेश्वर व्याख्यान करने के लिए उठ खड़े हुए। सुदामा सब कुछ भूलकर दत्तचित्त हो गये। किसी के व्यक्तिगत आचरण से उन्हें क्या लेना-देना? जिन विचारों और सिद्धान्तों के लिए वे आये हैं, वे तो सुनने को मिलेंगे।
आचार्य ज्ञानेश्वर ने ईश्वर को प्रणाम कर, नयन मूंदे हुए, अत्यन्त मग्न भाव से बहुत मधुर कण्ठ से दो श्लोक गाये। आचार्य के कण्ठ के माधुर्य ने सुदामा को गद्गद कर दिया। इस वृद्धावस्था में भी इतना मधुर गाने वाला व्यक्ति। चमत्कार ही था। यह स्वर और संगीत, जब उनके उदात्त आध्यात्मिक विचारों के साथ मिलकर प्रकट होता होगा तो कौन-सा चमत्कार नहीं करता होगा।
आचार्य ने अपने नयन खोले और राजपुरुष की ओर देखा तथा हाथ जोड़ दिये, जैसे स्तुति सम्पन्न हुई हो।
तो वन्दना इस ईश्वर की हो रही थी। सुदामा को लगा उनका सिर भन्नाता जा रहा है। पर, उन्होंने स्वयं को संभाला। भला इसमें खीझने की क्या बात है। यह आचार्य का अपना निजी मामला है। वे जिसे चाहें, भक्तिपूर्वक प्रणाम करें, जिसकी चाहें स्तुति करें। सुदामा को अपना सम्बन्ध, केवल उनके दार्शनिक सूत्रों तक ही रखना चाहिए। आचार्य के विचार सार्वजनिक उपयोग के लिए हैं, उनका व्यवहार नहीं।
आचार्य ज्ञानेश्वर ने बोलना आरम्भ किया, "उपस्थित विभूतियो! देवियों और सज्जनो! मेरा यह सौभाग्य है कि मैं आपकी नगरी में तब उपस्थित हुआ, जब स्वयं स्वनाम धन्य वृष्णि राजकुमार उपराज राजशेखर यहां वर्तमान हैं। आप सोचिये, इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात क्या हो सकती है कि आप प्रभु के किसी साधारण भक्त से मिलने जायें और आपको वहां साक्षात् प्रभु विद्यमान मिल जायें। मैंने अपने पिछले जन्म में अवश्य कोई असाधारण पुण्य किया था, जो आज अकस्मात् ही उदित हुआ है और मुझे उपराज के दर्शन हो गये हैं। राजपुरुषों के दर्शन बड़े सौभाग्य से होते हैं। बड़े-बड़े लोग देहरियों पर अपनी नाक रगड़-रगड़कर चेहरे को सपाट बना लेते हैं, तो भी उन्हें एक साधारण ग्राम-प्रमुख अथवा नगर-शासक के दर्शन नहीं होते। राजपरिवार के सदस्य और उपराज जैसे पद के शासक का इस प्रकार अपनी प्रजा के बीच आकर बैठ जाना, स्वयं ईश्वर का जन-साधारण के बीच आकर बैठ जाने से कम चमत्कारी नहीं है।" आचार्य ने एक त्वरित श्वास लिया और बोलने की भगदड़ में कुछ ऐसे आगे बढ़े कि सुदामा को लगा कि आचार्य इस भय से त्रस्त हैं कि कहीं उपराज उनका व्याख्यान सुनने से पहले ही उठकर न चल दें। कदाचित् आचार्य इस प्रयत्न में थे कि इससे पहले कि उपराज उठे, वे अपने हृदय की कृतज्ञता की बाढ़ में उन्हें पूरी तरह आप्लावित कर दें, "यह सब इसलिए सम्भव हो सका है, क्योंकि उपराज के मन में अपनी प्रजा के लिए अथाह ममता है, इतनी ममता कदाचित मां के मन में अपने बच्चे के लिए अथवा स्वयं ब्रह्मा के मन में अपनी रची सृष्टि के लिए भी न हो। इसी ममता, स्नेह, कृपा तथा दया के कारण, उपराज प्रजा के भाग्य-विधाता बन गये हैं। कई बार तो मुझे लगता है कि उनके मन में स्रष्टा ब्रह्मा की-सी ममता, पालनकर्त्ता विष्णु का-सा स्नेह और पोषण-क्षमता तथा रुद्र के समान शत्रुओं का संहार करने का सामर्थ्य है। मुझे उपराज में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति दिखाई पड़ती है।"
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