पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा मुंह बाये प्रतीक्षा कर रहे थे कि अभी आचार्य अपने विषय पर आयेंगे, अभी वे दर्शनशास्त्र की कोई बात कहेंगे, अभी भक्ति-योग के सिद्धान्तों की चर्चा करेंगे; और आचार्य थे कि बहे जा रहे थे, "उपराज ब्रह्मा, विष्णु, महेश की ही त्रिमूर्ति नहीं हैं, उनमें गंगा, यमुना और सरस्वती का भी संगम है। उनमें गंगा की पवित्रता है, यमुना की सरसता है और सरस्वती का ज्ञान है।"
सुदामा के लिए आचार्य का व्याख्यान असह्य होता जा रहा था। उनकी मानसिक खीझ के साथ-साथ हृदय की पीड़ा भी जुड़ गयी थी। उन्हें लगा कि उनके हृदय में स्थापित, पवित्र अष्टधातुओं से बनी आचार्य ज्ञानेश्वर की मूर्ति टुकड़े-टुकड़े हो गयी है।
उसके टुकड़े बड़े नुकीले और धारदार थे। वे सारे टुकड़े सुदामा के हृदय में लगातार चुभ-चुभकर घाव कर रहे थे और उन घावों से रक्त बह रहा था। सुदामा बड़े असमंजस में बैठे, एक दृष्टि अपने भीतर आहत हृदय पर डालते और दूसरी धाराप्रवाह व्याख्यान करने वाले आचार्य ज्ञानेश्वर पर।
आचार्य के व्याख्यान ने एक मोड़ लिया, "उपराज राजशेखर के पिता वृष्णि अकूतबल मेरे बाल-सखा थे। हमारा सारा बचपन एक साथ बीता था। हम साथ खेले और साथ पढ़े थे। हमने साथ-साथ गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था।"
सुदामा के मन में आया, खड़े होकर ऊंचे स्वर में कहें, "आपका वृष्णि अकूतबल के साथ विवाह हो गया था क्या? पर आप में से पति कौन था और पत्नी कौन? इस उपराज को किसने अपने गर्भ में धारण किया था?"
और आचार्य कह रहे थे, "मैंने जिस बालक को अपनी गोद में खिलाया था, आज वह एक प्रदेश का उपराज हो गया है। मुझ जैसा भाग्यशाली कौन होगा, किसका पुण्य इतना प्रबल हुआ होगा, किस..."
सुदामा को लगा, उन्हें क्रमशः एक उन्माद ग्रसता जा रहा था। यदि उन्होंने स्वयं को संभाले नहीं रखा, तो वे किसी भी क्षण खडे होकर चीखने लगेंगे और वह चीखना उनके अपने ही नियन्त्रण में नहीं होगा। जाने उनके मुख से क्या निकले, क्या न निकले...?
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