पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
|
4 पाठकों को प्रिय 10 पाठक हैं |
कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
आचार्य क्या कह रहे थे, सुदामा सुन नहीं रहे थे। उनका अपना मन भयंकर शोर मचा रहा था : पता नहीं यह आचार्य ज्ञानेश्वर सत्य कह भी रहे हैं या नहीं। पता नहीं, ये उपराज के पिता को जानते भी हैं या नहीं। पर यदि ज्ञान की गरिमा, राजपुरुषों के सम्पर्कों से ही नापी जाती है, तो सुदामा, स्वयं कृष्ण के सहपाठी, गुरुभाई और मित्र हैं। उठा दी इस मूढ़, वृद्ध चाटुकार को यहां से, इसका सम्पर्क एक अज्ञात राजपरुष के पिता स रहा ह। यहा, मच पर सुदामा को बैठा दो। सदामा का सम्पर्क सर्वोच्च राजपरुष से है। यह गूगा राजपुरुष, जो मंच पर से एक वाक्य भी नहीं बोला था, और शायद बोले भी नहीं-क्या इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसे मंच पर बैठाकर विद्वानों द्वारा उसकी आरती उतारी जाये? यदि किसी दिन देश-भर के विद्वान कृष्ण को बीच में बैठाकर उसका गुणगान करें तो सुदामा को कोई आपत्ति नहीं होगी। कृष्ण स्वयं दार्शनिक है। कर्म-योग के सिद्धान्तों का उसका भाष्य, विद्वानों को ही नहीं, ऋषियों को भी अभिभूत कर देता है। सुदामा तो उस कृष्ण के मित्र हैं। और यह गूंगा राजपुरुष...धन्य हो तुम वृद्ध आचार्य ज्ञानेश्वर...।
सहसा सुदामा के मन में आया, क्या इस सभा में मंच पर बैठना और इस प्रकार मूर्खतापूर्ण बातें करना, इतना महत्त्वपूर्ण है कि सुदामा के मन में आचार्य ज्ञानेश्वर के स्थान पर, मंच पर बैठने की आकांक्षा जागी है? नहीं। वह तो आवेश की बात थी। यदि सचमुच उन्हें मंच पर बैठाया जायेगा, तो वे कभी भी उसे स्वीकार नहीं करेंगे। यह कोई ऐसा महत्त्व नहीं था, जिससे उन्हें अपना सम्मान अथवा गौरव कुछ बढ़ता प्रतीत हो। ऐसा गौरव तो आचार्य ज्ञानेश्वर को ही धन्य कर सकता है।
उनका मन हुआ, ज़ोर का एक अट्टहास करें और ऊंचे स्वर में कहें, 'आचार्य ज्ञानेश्वर! आपका भक्ति-योग मेरी समझ में आ गया है। आज आप इस राजपुरुष के प्रति अपनी भक्ति ही तो प्रकट कर रहे हैं। यह भक्ति तो तत्काल फलदायिनी है। सम्भव है कि सभागार छोड़ने से पहले ही आपके लिए किसी पुरस्कार, वृत्ति, दान या सहयोग की घोषणा कर दी जाये। सम्भव है कोई पद ही दे दिया जाये। यही है तुम्हारे ज्ञान और भक्ति का लक्ष्य? तुम कहीं भी सामान्य मनुष्य से ऊंचे न उठ पाये, वरन ज्ञान को ही तुम लोगों ने ला कीचड़ में सान दिया-धिक्कार है!'
सुदामा उठ खड़े हुए। अपने साथ लाये हुए ग्रन्थ के ताल-पत्र उन्होंने अपने वक्ष से चिपकाकर, उत्तरीय में छिपा लिये-कहीं आचार्य ज्ञानेश्वर की दृष्टि उन पर पड़कर उन्हें कलुषित न कर जाये।
सभागार से बाहर निकलकर सुदामा ने खुली हवा में एक लम्बी सांस ली। अच्छा हुआ, उन्होंने सभा से पहले आचार्य से मिलने का प्रयत्न नहीं किया। उस दण्डधर ने आचार्य के विषय में ठीक ही कहा था, "हां! वह भी आ रहा है।"
जैसे-जैसे सुदामा अपने गाँव की ओर बढ़ते जा रहे थे, उनके मानसिक तनाव का ज्वार नीचे आता जा रहा था। बातें तो तब भी उनके मस्तिष्क में उठ रही थीं, किन्तु यह सब आवेश का चिन्तन था, जो प्रहारक होता है, सैद्धान्तिक नहीं। किन्तु तनाव दूर हो जाने पर, मन सहज रूप से स्वस्थ चिन्तन करने लगता है। सुदामा का मस्तिष्क अनायास ही सहज रूप से व्यवहार में से सिद्धान्त निष्कर्षित करने लगता था और सिद्धान्तों को व्यवहार पर आरोपित करता रहता था।
|
- अभिज्ञान