पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
आचार्य ज्ञानेश्वर ने आज भक्ति का एक रूप दर्शाया था। किसी उपलब्धि के लिए, भौतिक उपलब्धि के लिए भक्ति। जो कुछ वे अपने ज्ञान से प्राप्त नहीं कर सके, अपनी भक्ति से प्राप्त करना चाह रहे थे।
यह लौकिक भक्ति थी। जिस किसी व्यक्ति की भक्ति की जाये, वह अपनी क्षमता-भर दान देता है। पद को प्राप्त करने के लिए, आवश्यक योग्यता न हो तो भक्ति से वह काम हो जाता है। धन की लालसा हो तो धनोपार्जन का उद्यम न कर, भक्ति करें, तो धन प्राप्त हो जाता है। भक्ति तो वह रत्न है, जो किसी भी अन्य योग्यता अथवा कर्म का स्थानापन्न हो सकती है। इस दृष्टि से तो भक्ति, ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ है। हमारे व्यवहार का यह लौकिक सिद्धान्त, क्या अध्यात्म से अलौकिक क्षेत्र में भी इसी प्रकार लागू होता है? क्या भक्ति से प्रसन्न होकर ईश्वर इसी प्रकार सांसारिक सुख-सुविधाएं प्रदान कर देता है? कष्टों, रोगों तथा क्लेशों से मुक्त कर देता है? मृत्यु को टालकर, आयु को बढ़ा देता है? क्या कर्म का कोई महत्त्व नहीं है? भक्ति के रूप में ईश्वर क्या अपनी स्तति सुनना चाहता है? ईश्वर क्या अपनी प्रशंसा का इतना भूखा है कि व्यक्ति के कर्मों को भूलकर, उसके प्रत्येक अपराध को क्षमा कर, उसकी इच्छापूर्ति कर देता है? क्या अपनी प्रशंसा और स्तुति के सामने, ईश्वर के लिए न्याय और अन्याय का कोई महत्त्व नहीं है? ईश्वर में यह दुर्बलता क्या सामान्य मनुष्य की अपेक्षा भी अधिक है? कोई भी मनुष्य यह समझ सकता है कि उसकी जो प्रशंसा की जाती है, वह उसके योग्य है या नहीं और जो व्यक्ति प्रशंसा कर रहा है, उसका लक्ष्य प्रशंसा ही है या कुछ और, क्या अपने भक्तों के सन्दर्भ में ईश्वर इतनी-सी बात नहीं समझता? इसीलिए तो ज्ञान-योग में सुदामा ईश्वर का यह स्वरूप स्वीकार नहीं करते। ऐसे ईश्वर को वे कैसे स्वीकार कर लें, जो एक सामान्य मनुष्य को...उसकी दुर्बलताओं और दुर्गुणों के साथ ही, सर्वशक्ति-सम्पन्न बनाकर तैयार किया गया हो।
सुदामा का मन उलझने लगा और जब सुदामा का मन उलझने लगता है तो उन्हें कृष्ण की याद आने लगती है। उलझनें जितनी बढ़ती हैं, कृष्ण की स्मृति भी उतनी ही तीव्र होने लगती है। गुत्थियों को कैसे सुलझाता है कृष्ण ? सारी समस्याओं का समाधान है उसके पास, जैसे वह सर्वज्ञान-सम्पन्न हो...कब भेंट होगी तुमसे? कृष्ण! कृष्ण!!
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