पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"आप क्या कह रहे हैं प्रिय!" सुशीला उठकर उनके पास आ गयी, "मेरी इच्छा तो केवल घर का बोझ उठाने में आपकी सहायता करने की है, सहयोग की। आपको अक्षम या हेठा प्रमाणित करने की बात..."
सुदामा ने याचक आँखों से उसकी ओर देखा, "मुझे एक बार अवसर दो सुशीला! एक अवसर!"
"ऐसे न कहें प्रिय! ऐसे नहीं।' सुशीला ने सुदामा के कन्धे पर पहले हाथ रखा और फिर अपना सिर टिका दिया, "जब तक आप पूरी तरह से नहीं चाहेंगे, मैं एकदम चाकरी नहीं करूंगी।" उसने अपना सिर उठाकर सुदामा को देखा, "आपको सूचना दिये बिना नगर जाना उचित नहीं था। मुझे क्षमा करो प्रिय!"
सुदामा ने उसके बालों में उंगलियां फिरायीं, "नहीं। तुमसे कोई भूल नहीं हुई है। तुमने कुछ भी गलत नहीं किया...उल्टे तुमने तो मुझे जगा दिया है।...मुझे अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिए।"
"कहां जायेंगे?"
"कहीं भी। किसी भी श्रेष्ठि के पास। श्रेष्ठ धनदत्त के पास ही चला जाऊंगा।"
"एक बात कहूं प्रिय! मानेंगे?" सुशीला का स्वर पिघला हुआ था।
"कहो।"
"जब याचना ही करनी है तो तलैया से क्या करनी, सागर से ही कीजिये।"
"क्या अभिप्राय है तुम्हारा?" सुदामा कुछ-कुछ समझ रहे थे।
"जब जाने ही लगे हैं तो श्रेष्ठि धनदत्त के पास क्यों. अपने मित्र कष्ण के पास ही जायें...।"
सुदामा कुछ नहीं बोले।...आज सन्ध्या समय, उनके मन में सुशीला की चाकरी के सन्दर्भ में कृष्ण की बात आयी थी।...ठीक कहती है सुशीला। कृष्ण के पास जाना, उनके लिए सरल होगा। याचना तो याचना ही है, तो क्यों न कृष्ण से...क्यों हठ कर रहे हैं वे। एक व्यर्थ की बात पर अड़े हुए हैं...।
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