पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"जाने को तो मैं कृष्ण के पास भी चला जाऊं।" थोड़ी देर बाद वे बोले, "पर सोचता हूं कि जब वह मेरा मित्र था, तो मात्र एक साधारण नायक का पुत्र था और अब कृष्ण, सारे जम्बूद्वीप की राजनीति का संचालक है। जाने अब वह कैसा व्यवहार करे।"
"उस दृष्टि से सोचें तो जाने श्रेष्ठि धनदत्त कैसा व्यवहार करे। और फिर कृष्ण कुछ भी हो जायें, आपके मित्र तो हैं ही। जब आपके मित्र थे, तब भी वे कंस का वध कर, ख्याति तो पा ही चुके थे। अब अपने मित्र का अपमान करेंगे, क्या वे? वे इतने अशिष्ट हैं क्या ?" और फिर जैसे उसने सायास जोड़ा, "प्रत्येक व्यक्ति पांचाल नरेश द्रुपद तो नहीं होता।"
हां!" सुदामा कुछ सोचते रहे, "कुछ भी हो, कृष्ण शिष्टाचार का निर्वाह तो करेगा ही। वैसा शालीन व्यक्ति...पर मात्र शिष्टाचार की कृत्रिमता से भी तो मेरा दम घुटने लगता है।" सहसा रुककर उन्होंने सुशीला को देखा, "कहती हो तो चला जाऊंगा, पर अपने मुंह से मांगंगा कछ नहीं। अपनी दर्दशा की चर्चा नहीं करूंगा।"
"ठीक है।" सुशीला उत्साहित हो उठी, "याचना का एक शब्द भी नहीं प्रिय! आप यही समझें कि किसी से कोई सहायता लेने नहीं, आप अपने एक मित्र से मिलने जा रहे हैं।"
"ठीक है! चला जाऊंगा।" सुदामा का असमंजस अभी समाप्त नहीं हुआ था।
"कब? कल प्रातः?"
"जब जाना ही है तो कल प्रातः ही सही।" सुदामा बोले।
सुशीला ने एक क्षण के लिए पति को भरपूर दृष्टि से देखा और फिर अपना सिर उनकी गोद में रख दिया, "ओह प्रिय!"
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