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अनायास रति
अनायास रति
प्रकाशक :
श्रंगार पब्लिशर्स |
प्रकाशित वर्ष : 2020 |
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 4487
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आईएसबीएन :1234567890 |
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0
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यदि रास्ते में ऐसा कुछ हो जाये जो कि तुम्हें हमेशा के लिए याद रह जाये तो...
करवट में लेटे-लेटे, जैसे ही मैंने अपनी जीन्स की जिप खोलनी चाही, तब एक
चिंता करने वाली बात ने मेरे हाथ रोक दिए। बात यह थी, कि पिछले कुछ महीनों से
मुझे एक नया फितूर सवार हुआ था। मैं अक्सर जाँघिये की जगह लंगोट पहनने लगा
था। वैसे तो लंगोट पहनने में कोई खास बात नहीं थी, लेकिन इस समय यह मेरे लिए
एक समस्या बन सकती थी। मुझे अभी तक लंगोट पहनने का ठीक से अभ्यास नहीं हुआ
था। इसलिए कभी-कभी उसे ठीक से बाँधे रहने के लिए मैं लंगोट की बाँधने वाली
बद्धी में जो गाँठ मैं लगाता था, वह कभी-कभी फंस जाती थी। सामान्य प्रकाश में
तो उसकी गाँठ को ठीक से देखकर और धैर्य के साथ लगे रहने से वह खुल ही जाती
थी। यदि अभी यहाँ के अंधेरे में फँसी तब तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो जायेगा।
मैंने डरते-डरते जिप खोल कर जीन्स को नीचे खिसकाया, तो उसके साथ-साथ लंगोट भी
खिसकने लगी। कूपे की सीट के पीछे वाला लकड़ी की दीवार के कारण जगह थी नहीं,
मैंने फिर भी सावधानी से केवल जीन्स को उतारने की कोशिश की। अंदाजे से जैसे
ही जीन्स घुटनों तक उतरी होगी कि मैंने लम्बी साँस ली। इस बीच में मेरा बायां
हाथ जो कि मेरे शरीर के नीचे दबा हुआ था, वह खिसका और मेरा बायाँ पंजा उसके
नितम्ब पर चिपक गया। शायद उसे अच्छा लगा या फिर क्या हुआ, वह फिर से मुझसे
लिपट गई। लेकिन...
अचानक हिलने के कारण मेरा ध्यान हटा और लंगोट का नाड़ा खिंच गया। मुझे यह
तुरंत समझ में आ गया और मैंने उसे संभालना चाहा, लेकिन गाँठ लगती ही जा रही
थी। मैंने बायें हाथ से उसे अपनी ओर खींचा ताकि वह हिलना-डुलना बंद कर दे और
दायें हाथ से नाड़े को टटोला। शायद अभी भी उम्मीद थी और नाड़े की गाँठ खुल
सकने की संभावना बाकी थी। लेकिन तभी वह करवट छोड़कर सीधी हो गई और मुझे फिर
से अपने ऊपर खींचने लगी। मेरे उंगलियों को सरकते नाड़े का अहसास हो रहा था,
पर तब तक देर हो गई। गाँठ खोलने में मुझे साधारण परिस्थितियों में कठिनाई
होती है, अंधेरे ने और भी काम बिगाड़ दिया था। कभी-कभी जिस बात का डर होता
है, बिलकुल वही हो जाती है। इधर शायद हम दोनों का समय अब आ चुका था, वह तो
बार-बार मुझे खींच ही रही थी, इधर लंगोट के अंदर मेरी उत्तेजना भी बढ़ती ही
जा रही थी।
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