कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
|
7 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
23. ऐतिहासिक मुकदमा
जब इंग्लैड और अमेरिका ने पूर्वी एशिया में पुन: प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो
उन्होंने आई.एन.ए. के अधिकारियों एवं सैनिकों को बंदी करके भारत भेज दिया।
उसमें से बहुतों को दिल्ली के लाल किले में रखा गया और कुछ को नई दिल्ली
छावनी में काबुल लाइंस भेज दिया। यह विधि विडंबना भी थी कि 17 हजार आई.एन.ए.
के सैनिक भारत में युद्ध बंदी के रूप में लाये गए जबकि दिल्ली में विजेता के
रूप में आना था। वाइसराय भवन पर तिरंगा फहराना था और लाल किले के अन्दर विजय
परेड करनी थी। इसके विपरीत वे लाल किले में युद्ध बंदी के रूप में बंद थे और
ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने के अपराध में अभियोग चलाये जाने की
प्रतीक्षा में थे। ऐसी स्थिति अक्तूबर/नवंबर 1945 में थीं।निश्चय ही आई.एन.ए. युद्ध स्थल पर स्वतंत्रता की लड़ाई में विजय प्राप्त करने में असफल रही परंतु जैसा कि अपनी पुस्तक 'दी स्प्रिंगिंग टाइगर' में मेजर रांग टोपी ने लिखा है कि आई.एन.ए. के पहुंचने पर भारत में 'भयकर विघटन' होगा, वास्तव में आई.एन.ए. के दिल्ली पहुचने पर देश में ब्रिटिश राज्य का अंत होने में शीघ्रता हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति अगस्त 1945 के मध्य में हुई। उसी समय भारत में फुसफुसाहट होने लगी कि आई.एन.ए. के बीस हजार सैनिक लालकिले में बंद थे और उनमें से छह को गोली मार दी गयी थी। जब तक युद्ध चलता रहा तब तक जनता द्वारा इस विषय पर बात करना खतरनाक था परंतु 20 अगस्त को जवाहर लाल नेहरू ने अपने प्रेस को दिए गए वक्तव्य में कहा, “अब आजाद हिंद फ़ौज, जैसा कि उसका नामकरण किया गया है, के सैनिक बहुत बड़ी संख्या में बंदी हैं और उनमें से कुछ को मार दिया गया है। किसी अन्य समय पर भी इनके साथ यह कठोर व्यवहार अनुचित था परंतु इस समय जब यह कहा जा रहा है कि भारत में बहुत परिवर्तन होने वाला है यदि इन सैनिकों के साथ साधारण बागियों जैसा व्यवहार किया गया तो एक भयंकर त्रुटि होगी जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। इनको दंडित करने का अर्थ भारत एवं उसकी समस्त जनता को दंडित करना माना जायेगा और लाखों हृदयों में गहरा घाव बन जायेगा।" इस वक्तव्य ने समस्त देश में एक
ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जिससे आई. एन. ए. का विषय संपूर्ण भारत में विचार-विमर्श के लिए मुख्य विषय बन गया। जनता ने इन सैनिकों को मुक्त करने की मांग की। सरकार ने जनसाधारण के विचार को नर्म करने का प्रयास यह कह कर किया कि वह उन सैनिकों के साथ मृदुता का व्यवहार करेगी “जो किसी दबाव-वश भ्रमित होकर शत्रु सेना में सम्मिलित हो गए थे।" परंतु यह अवास्तविक एवं वृथा उपाय था क्यों समस्त 17 हजार सैनिकों ने पश्चाताप करने की मांग अस्वीकृत कर दी और वे सब स्वेच्छा से सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने के दोष के लिए कठोरतम दंड सहन करने के लिए प्रस्तुत थे।
कांग्रेस कार्य कमिति की बैठक सितंबर के मध्य पूना में हुई और उसने घोषणा की कि “यदि भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में कष्ट उठाने वाले अधिकारियों एवं सैनिकों को, चाहे उनका यह कार्य त्रुटिपूर्ण ही रहा हो, दंडित किया गया तो यह. एक दुखद घटना होगी।वे नए स्वतंत्र भारत के निर्माण में अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।" समिति ने इन पुरुषों एवं स्त्रियों को स्वतंत्र करने के लिए सरकार से आग्रह किया। एक सप्ताह पश्चात कांग्रेस की कार्य समिति ने एक सुरक्षा समिति बनायी जिसका कार्य आई.एन.ए. के पुरुषों एवं स्त्रियों पर अभियोग चलाये जाने की दशा में उनके लिए रक्षात्मक कार्यवाही करना था। इस समिति के सदस्य पुराने प्रमुख राष्ट्रीय नेता सर तेज बहादुर सपू, कैलाश नाथ काटजू, भूलाभाई देसाई, जवाहरलाल नेहरू, आसफ अली (संयोजक) रघुनंदन सरन थे। इन्हें अन्य सदस्य नियुक्त करने का भी अधिकार था। प्रतिवादी वकीलों में राय बहादुर बद्रीदास, लाहौर हाई कोर्ट के भूतपूर्व जज कुंवर सर दलीप सिंह एवं बख्शी सर टेक चंद, पटना हाई कोर्ट के भूतपूर्व जज पी.एन. सैन सम्मिलित थे। इस प्रकार यह भारत के विधिवेत्ताओं का सर्वोत्तम वर्ग था जो स्वमेव आजाद हिंद फौज के पक्ष में अभियोग का प्रतिवाद करने के लिए प्रस्तुत हुआ था।
महात्मा गांधी जो इस समय हरिजन बस्ती में ठहरे हुए थे, आई.एन.ए. के अधिकारियों से किले के अंदर और बाहर मिलते थे।
1 दिसंबर 1945 को जब मैं जवाहरलाल नेहरू से उस समय मिला जब वे प्रतिवादी की ओर से गवाही देने की प्रतीक्षा में थे तो मैंने उन्हें बताया कि पूर्वी एशिया में आई.एन.ए. के अनेक सैनिक अब भी भारत आने की प्रतीक्षा में थे तो जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर दिया कि वे नहीं चाहते कि वे व्यक्ति भी भारत आकर भारत-निवासियों के जन समुद्र में विलीन हो जाए।
लालकिले में शाहनवाज, सहगल और ढिल्लन पर अभियोग संबंधी मोतीराम के एक अत्युत्तम अभिलेख के आमुख में जवाहरलाल ने 17 जनवरी 1946 को
लिखा था “अभियोग में नाटक किया गया और उसे भारत और इंग्लैंड के बीच पुराने विवाद का प्रत्यक्ष रूप दिया गया। यह अभियोग भारतीयों एवं भारत के शासकों की इच्छा के बीच पुराने विवाद शक्ति परीक्षण का विषय बन गया। अंत में जनसाधारण की इच्छा की ही विजय हुई।"
शाहनवाज, सहगल तथा ढिल्लन के विरुद्ध सैनिक न्यायालय में कार्यवाही की पृष्ठ भूमि में यही मनोवैज्ञानिक भाव था। इस सैनिक न्यायालय की अध्यक्षता मेजर जनरल ब्लैक्स लैंड लाल किले के अंदर निवासालय की दूसरी मंजिल पर कर रहे थे। वादियों की ओर से भारत के एडवोकेट जनरल एन.पी.इंजीनियर वकालत कर रहे थे। अभियोग की कार्यवाही संवाददाताओं एवं जनता के लिए खुली थी। इसलिए जनता को समाचार पत्रों द्वारा दैनिक कार्यवाही की सूचना प्रतिदिन अत्यंत विस्तार के साथ मिल जाती थी। ब्रिटेन और अमेरिका की समाचार एजेंसियों एवं समाचार पत्रों ने भी अपने प्रतिनिधि अभियोग की कार्यवाही का विवरण प्राप्त करने के लिये दिल्ली भेजे थे।
लालकिले में अभियोग संबंधी कार्यवाही ही उन दिनों जनसाधारण की चर्चा का विषय थी। जैसे-जैसे आई.एन.ए. के पराक्रम की कहानी प्रथम बार जनता को ज्ञात होती थी, उसका उत्साह बढ़ता जाता था। समस्त देश में गौरव एवं गरिमा की ज्योति प्रज्वलित हो गई थी और जनमानस में आत्मसम्मान जागृत हो गया था। समस्त राष्ट्र ने इस तथ्य से अपने पौरुष का अनुभव किया कि मुक्ति सेना पूर्ण रूपेण भारतीय थी। उन्हीं के द्वारा उसका गठन किया गया था, उसके भारतीय अधिकारी और सैनिकों ने भारत बर्मा सीमा पर विदेशी शासकों के विरुद्ध कितने ही स्थानों पर युद्ध किया था और वह इस स्थिति में पहुंच गई थी कि बंगाल और आसाम से, संभवत: भारत से भी अंग्रजों को बाहर निकाल देती।
|
लोगों की राय
No reviews for this book