कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
|
7 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
24. सम्राट के विरुद्ध युद्ध
सैनिक अभियोग 5 नवंबर को आरंभ हुआ और 31 दिसंबर 1945 को समाप्त हुआ। तीनों
अभियुक्त, शाहनवाज, सहगल और ढिल्लन सैनिक वेशभूषा में थे, केवल उन पर बैज
नहीं थे। न्यायालय उनको ब्रिटिश सेना में उनके उसी पद के नाम से कप्तान
शाहनवाज, कप्तान सैहगल, ले. ढिल्लन कहकर पुकारता था जिन पर वे ब्रिटिश सेना
में थे। शेष भारतवासी उन्हें उनके आई.एन.ए. के पदों के अनुसार मेजर जनरल
शाहनवाज, कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लन के नामों से जानते थे। आरोप-पत्र पढ़ा गया। उनमें से प्रत्येक के विरुद्ध अनेक आरोप थे। परंतु तीनों के विरुद्ध एक सामान्य आरोप यह था कि उन्होंने ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ा था। उन्होंने दोष स्वीकार नहीं किया। लगभग तीस वर्ष के अंतराल के बाद बैरिस्टर की वेशभूषा पहने जवाहर न्यायालय में सबकी दृष्टि के केंद्रबिंदु थे। सर तेज बहादुर सप्रू के अस्वस्थ हो जाने के कारण बचाव समिति के अन्य सदस्यों से परामर्श लेकर अभियोग की कार्यवाही में बचाव का उत्तरदायित्व भूलाभाई को सौंपा गया।
दिन प्रतिदिन भूलाभाई देसाई लाल किले में जाते थे। वहां एक तंबू में शाहनवाज, सहगल और ढिल्लन एवं अन्य आई.एन.ए. के अधिकारियों से बचाव की तैयारी के लिए मिलते थे। आई.एन.ए. के अधिकारियों के इस आवागमन से उन्हें पारस्परिक पुनर्मिलन का अवसर मिलता था क्योंकि इससे पूर्व युद्धकाल में वे विभिन्न स्थानों पर युद्धरत रहने के कारण पृथक हो गये थे। यह पुनर्मिलन भावनामय था और इस अवसर पर लालकिला 'जयहिंद' के अभिवादन से गूंज उठता था। ये अधिकारी एक-दूसरे के प्रति शुभेच्छा व्यक्त करते थे और आपस में गले मिलते थे। इस समय लालकिले में एक प्रमुख एवं अद्भुत व्यक्ति जनरल मोहन सिंह भी थे जिन्होंने सन् 1942 में प्रथम आई.एन.ए. का निर्माण किया था और जिन्हें जापानियों की अवज्ञा करने के कारण युद्ध समाप्ति तक कारागार में रहना पड़ा था।
टैंट में बैठकर भूलाभाई देसाई ने उन समस्त अभिलेखों का अध्ययन किया जिनमें आई.एन.ए. के जन्म, गठन, विघटन एवं पुनर्जन्म तथा वीरतापूर्ण उपलब्धियां और आज़ाद हिंद की अस्थायी सरकार और उसकी शक्तिशाली देशों से मान्यता, आई.एन.ए.
का नेतृत्व एवं अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार आई.एन.ए. के युद्धबंदियों की उस समय की स्थिति जबकि अंग्रेजों ने मुक्ति सेना को बंदी बनाया था का विवरण दिया था। जैसे-जैसे भूलाभाई देसाई को अस्थायी सरकार के निर्माण के संबंध में अधिक प्रमाण मिलते जाते थे वैसे-वैसे वे नेताजी की दूरदर्शिता एवं उनकी अद्भुत संगठन शक्ति को देखकर चकित हो जाते थे। क्रांतिकारी युद्ध में कार्यरत रहते हुए भी नेताजी ने छोटी-से-छोटी बात पर भी गहन विचार किया। यह जानकर भूलाभाई देसाई कभी-कभी अवाक् रह जाते थे। स्वास्थ्य ठीक न होते हुए भी उन्होंने रात-दिन परिश्रम करके उन तथ्यों को ज्ञात कर लिया जो बचाव के लिए अकाट्य थे। 5 नवंबर 1945 को जब अभियोग की कार्यवाई आरंभ हुई तो वे पूर्णतया तैयार थे।
5 नवंबर से 31 दिसंबर 1945 के मध्य अर्थात अभियोग कार्यवाही के 57 दिनों के दौरान वादी की ओर से 30 साक्षी प्रस्तुत किए गए और बचाव पक्ष की
ओर से 12साक्षी उपस्थित हुए। वादी के साथियों ने एक मास से अधिक समय लिया परंतु बचाव पक्ष के साक्षी न्यायालय के समक्ष केवल एक सप्ताह ही रहे।
बचाव पक्ष के साक्षियों ने आठ दिसंबर को गवाही देना आरंभ की। उससे एक दिन पूर्व तीन अधिकारियों ने, जिन पर अभियोग चलाया जा रहा था, न्यायालय में बयान दिए।
सामान्य व्यक्ति, नागरिक और सैनिक कानून के अंतर से अनभिज्ञ था। उसे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी परंतु वे इन तीन अधिकारियों के भाग्य में अत्याधिक रुचि रखते थे क्योंकि ये तीन अधिकारी ही आई.एन.ए. के एवं उन समस्त भावनाओं के प्रतीक थे जिनके लिए नेताजी लड़ते रहे। इन तीनों को किसी एक आरोप अथवा सब आरोपों के कारण फांसी का दंड दिया जा सकता था। संपूर्ण देश में भावना उच्च शिखर पर थी और मनुष्यों के हृदयों में उत्कंठा जाग्रत हो गयी थी। भारतीय जनता की ओर से यह धमकी दी जा रही थी कि यदि इन तीन व्यक्तियों का बाल भी बांका हुआ तो भारत में एक भी अंग्रेजी जीवित नहीं बचेगा।
लालकिले के अंदर सैनिक अदालत कानूनी कार्यवाही में रत थी परंतु किले के बाहर समस्त देश एक छोर से दूसरे छोर तक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भावनाओं के उत्कर्ष पर था।
वादी यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे कि तीनों अधिकारी सम्राट के विरुद्ध युद्ध करने के एवं अन्य कार्यों के भी दोषी थे जिसके कारण उन्हें भारतीय सैनिक कानून के अंर्तगत दंडित किया जा सकता था। बचाव पक्ष अंतर्राष्ट्रीय अधिनियम के अंतर्गत उनके कार्यों को वैध प्रमाणित करके उचित बता रहा था। आई.एन.ए. ने एक विधिवत निर्मित सरकार के अंतर्गत युद्ध किया। इस सरकार को विश्व के
नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी और आई.एन.ए. अपनी ही आज़ाद हिंद फौज अधिनियम की धाराओं द्वारा नियंत्रित थी।
भूलाभाई ने अपने तर्क दो दिन तक न्यायालय के समक्ष रखे और बिना कागज पढ़े जबानी बोले।
सर एन.पी. इंजिनियर को अपना लिखित व्यक्तव्य पढ़ने में चार घंटे लगे। वादी और प्रतिवादी के साक्षियों की गवाहियों के बीच तीनों अभियुक्तों के बयान न्यायालय के समक्ष हुए जिनसे भारत की आत्मा झंकृत हो उठी।
शाहनवाज ने कहा-“ब्रिटिश सम्राट के प्रति राजभक्ति की परंपरा में जन्म लेने के कारण मैंने भारत को युवक ब्रिटिश अधिकारियों की दृष्टि के माध्यम से देखा था किंतु जब मैं नेताजी से मिला और उनके भाषणों को जीवन में प्रथम बार सुना तो मैंने भारत को एक भारतीय की दृष्टि के माध्यम से देखा। मैंने नेताजी में नेतृत्व पाया और इसलिए मैं उनका अनुगामी बना। मेरे सम्मुख प्रश्न था-सम्राट अथवा देश? मैंने देशभक्त होने का निर्णय लिया और नेताजी को विश्वास दिलाया कि मैं देश के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत हूं।"
सहगल ने अपने बयान में कहा-"हमें यह अनुमान हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने स्वमेव उन बंधनों को तोड़ दिया है जिनसे हम ब्रिटिश सम्राट के साथ बंधे थे
और इस प्रकार हमें उनके प्रति समस्त कर्त्तव्यों से मुक्त कर दिया है। हमें यथार्थ रुप से यह विश्वास हो गया कि ब्रिटिश सम्राट ने हमारी रक्षा का उत्तरदायित्व वहन करना समाप्त कर दिया है तो वे हमसे राजभक्ति की कैसे आशा कर सकते हैं।"
कर्नल ढिल्लन ने देहरादून मिलिट्री एकेडेमी के चेटवुड हाल में अंकित शब्दों का स्मरण दिलाते हुए कहा-"तुम्हारे देश का सम्मान, उसकी सुरक्षा और कल्याण का स्थान सर्वोपरि है। मैंने अनुभव किया कि यदि इस अवसर पर एक शक्तिशाली राष्ट्रीय सेना का निर्माण किया जाएं जिसमें मनुष्य स्वेच्छा से सम्मिलित हो तो हम विदेशी शासन से अपने देश को ही मुक्त नही करेंगे अपितु जापानियों का भी सामना करने में समर्थ होंगे यदि वे विश्वासघात करके हमें स्वतंत्रता के युद्ध में सहायता देने के स्थान पर अपने लाभ के लिए हमारा शोषण करने लगेंगे।"
इन तीनों अधिकारियों के प्रेरक बयानों ने समस्त देश के उन लाखों भारतीयों के मन में एक उत्साह की लहर दौड़ा दी जो प्रतिदिन न्यायालय की सैनिक कार्यवाही का अनुशीलन करते थे। जनता के लिए वादी की ओर से एवं तत्पश्चात् प्रतिवादी की ओर से हुई साक्षियों का कम महत्व था। इसमें उनकी रुचि कम थी। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देश की जनता उस विस्तृत साक्षीकरण को पढ़ने में रुचि नहीं रखती थी जिससे समाचार पत्रों के पृष्ठ भरे रहते थे।
|
लोगों की राय
No reviews for this book