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हास्य कथा बत्तीसी

वीरेन्द्र जैन

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4948
आईएसबीएन :81-7043-348-7

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बालपयोगी हास्य कथाएँ

Hasya Katha Battisi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रिय किशोर दोस्तो,
इन कहानियों का लेखक मैं माना जाता हूँ। मैं ही माना जाता रहूँगा भी। ये मेरे नाम से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से कुछ के लिए मैं पुरस्कृत भी हुआ। फिर भी यह सत्य है कि इन्हें मैंने लिखा भर है, गढ़ा नहीं है। मेरे मौहल्ले में मेरे आसपास कुछ बच्चे रहते थे-रानी, राजू चारु, बॉबी, विवेक और गुड़िया। और भी कई जिनके अब नाम याद नहीं आ रहे। ये जैसे ही स्कूल से लौटते थे, घर में बस्ता पटक मेरे दरवाजे पर आ डटते और कहते-भाई साहब, कोई कहानी सुनाओ। और तब मैं इनसे पिंड छुड़ाने के लिए कोई कहानी गढ़ने की कोशिश में जुट जाया करता था। मैं शुरू करता और वे उसे आगे बढ़ाते जाते। कभी गढ़ने में, कभी ऐसी हरकतें करके दिखाने में जिन्हें लिखे बिना रहा ही न जा सके। बस, इस तरह ये कहानियाँ बनीं। इन्हें सुनकर जब वे हँसते, ठहाके लगाते तो न केवल उनकी बल्कि मेरी भी सारी थकान उड़न छू हो जाती और हम सब नयी स्फूर्ति के साथ अपने नये काम में जुट जाते।

दोस्तो, ये कहानियाँ तुम्हें भी हँसने-खिलखिलाने का मौका दें, तुम भी इन्हें पढ़कर तरोताजा हो सको, यही मेरी कामना है।
लेखक वीरेन्द्र जैन

भोजनभट्ट जब रह गए भूखे

हमारी कंपनी के मैनेजर लुभायाराम राय यों तो बहुत डरपोक और संकोची आदमी थे, मगर खाने के मामले में और खासकर दूसरे की जेब के पैसे खर्च कराकर खाने के मामले में न उन्हें पेट फटने का डर सताता था, न संकोच होता था। इसीलिए हम उन्हें भोजनभट्ट कहते थे।
जब भी हम लंच करने रेस्तराँ में जाते भोजनभट्ट भी हमारे पीछे-पीछे आ पहुँचते और कई चीजों का ऑर्डर देकर हमारे पास बैठ जाते। फिर हमसे पहले सभी चीजें चट करके मुँह साफ करते कहते, ‘‘मैं अभी आ रहा हूँ’’ पर लौटकर कभी न आते। इस तरह उनके भोजन के पैसे भी हमें चुकाने पड़ते।
एक बार जब भोजनभट्ट जी ने हम तीन साथियों को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया तो हमें आश्चर्य हुआ। हम अगली-पिछली सारी कसर पूरी करने का इरादा करके अगले दिन पहुँच गए भोजनभट्ट जी के घर। उनके घर पर कीर्तन हो रहा था। करीब तीन घंटे बाद जब कीर्तन समाप्त हुआ तो भोजनभट्ट ने सबको प्रसाद बाँटा। उसके बाद एक-एक करके सभी लोग चले गए। हम तीनों इस इंतजार में बैठे रहे कि शायद मुहल्ले के लोगों के जाने के बाद भोजनभट्ट जी हमें भोजन कराएँगे। मगर करीब डेढ़ घंटा और बीत जाने का बाद भोजन आता न दीखा, तो हमारे एक साथी ने पूछ ही लिया कि भोजन कब मिलेगा। उसकी बात सुनकर भोजनभट्ट जी बोले, ‘‘भोजन कैसा भोजन ?’’
हमने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने ही हमें भोजन पर बुलाया था। भोजनभट्ट बजाय शर्मिंदा होने के तुरंत बोले, ‘‘नहीं भाई, तुम लोगों से सुनने में भूल हो गई है। हमने तो आपको भजन-कीर्तन पर बुलाया था। हम बंगाली लोग भजन को भोजन बोलते हैं भाई।’’
फिर थोड़ा ठहरकर वे बोले, ‘‘आज तो मैं आपको भोजन करा भी नहीं सकता, क्योंकि आज हमारे घर कीर्तन हुआ है सो घर में खाना नहीं बनेगा। सब उपवास रखेंगे। हाँ, अगर किसी को ज्यादा ही भूख लगेगी तो वह होटल में जाकर खा आएगा।’’
हमने कहा तो चलिए हमारी खातिर आप ही उपवास तोड़ दीजिए।’’
भोजनभट्ट जी ने यह सलाह तुरंत मान ली। होटल में पहुँचकर लंबा-चौड़ा ऑर्डर दिया। अभी हम लोग आधा पेट भी नहीं भर पाए थे कि वह अपने हिस्से का तमाम भोजन चट करके उठ खड़े हुए और हमेशा की तरह, ‘‘मैं अभी आता हूँ’’ कहते हुए यह जा और वह जा।

कहना न होगा, अपने साथ-साथ हमें उनके भोजन के भी पैसे चुकाने पड़े।
बस उसी समय हम तीनों ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली। अगले दिन हम तीनों भोजनभट्ट जी से अलग-अलग मिले और उन्हें इतवार की दोपहर अपने-अपने घरों में खाने का निमंत्रण दे दिया।
उन्होंने तीनों जगह खाना खाने की सहर्ष स्वीकृति दे दी।
उन्होंने बुधवार से ही अपने घर खाना छोड़ दिया था। इतवार को सुबह-सवेरे वह अपने घर से निकल पड़े। चलने से पहले अपने लड़कों को हिदायत दी, ‘‘देखो, मैं आज रमेश, सुरेश और दिनेश के घर भोजन करने जा रहा हूँ। तुम ठीक पाँच बजे साइकिल लेकर दिनेश के घर पहुँच जाना, क्योंकि ज्यादा खाने के कारण मैं चल नहीं सकूँगा।
भोजनभट्ट जी रमेश के घर पहुँचे।
उसने उन्हें बैठक में बिठाकर एक गिलास ठंडा पानी हाजिर किया।
भोजनभट्ट जी तो चार दिन से भूखे थे सो भूखे पेट में खाली पानी ने जाकर ऊधम मचाना शुरू कर दिया। भीतर रसोईघर से तवे पर कुछ तले जाने की आवाज आ रही थी। उसे सुन-सुनकर भोजनभट्ट प्रसन्न हो रहे थे और इंतजार में थे कि कब वे सब पकवान उनके सामने आयें। पर भीतर कुछ बन रहा होता तब तो आता। भीतर तो रमेश की पत्नी खाली गर्म तवे पर पानी के छीटे मार रही थी। अचानक वह आवाज आनी बंद हो गई। भोजनभट्ट जी सतर्क होकर बैठ गए। तभी रमेश की पत्नी ने आकर सूचना दी, ‘‘खाने का सब सामान कुत्ते ने जूठा कर दिया है। अब मैं बाजार से दूसरी सब्जियाँ वगैरह लेने जाती हूँ।’’
यह सुनकर भोजनभट्ट जी के तो होश ही उड़ गए। उन्हें तुरंत सुरेश की याद आई। वह उसी समय उसके घर चल पड़े।
सारे रास्ते वह रमेश और उसकी पत्नी को कोसते रहे। जैसे ही वह सुरेश की गली में मुड़े वह उनसे टकरा गया। वह बोला, ‘‘सर, मुझे सुबह रमेश ने बताया कि आज आपकी दावत उसके घर में है सो मैंने कार्यक्रम बदल दिया। अब मैं कहीं जा रहा हूँ। आपको भोजन कराने का मौका आज तो मेरे हाथ से निकल गया मगर, कोई बात नहीं, फिर कभी सही।’’ इतना कहकर वह तेजी से बस स्टॉप की तरफ दौड़ गया।

बेचारे भोजनभट्ट जी काफी देर तक भूखा पेट पकड़े सुरेश पर लानत-मलामत भेजते रहे फिर कुछ हिम्मत बटोरकर मेरे घर के लिए चल पड़े। मैं तो उनके इंतजार में बैठा ही था। तपाक से उन्हें घर ले आया। ज्योंही वह आराम से बैठे, मैंने कहा, ‘‘सर, यह तो बुरा हुआ कि आज ही सुरेश और रमेश ने भी आपको निमंत्रित किया। अब मैं आपके पेट के साथ तो ज्यादती कर नहीं सकता इसलिए...’’अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरी पत्नी दो कप चाय ले आई। चाय पीकर मैं उन्हें छत पर ले आया ताकि हवा का आनंद लिया जा सके।
छत पर पहुँचते ही भोजनभट्ट जी ने मरी हुई आवाज में कहा, ‘‘नहीं, मैंने उनके यहाँ भोजन नहीं किया। मैंने फैसला किया था कि खाना मैं तुम्हारे ही घर खाऊँगा।’’
तभी मेरी पत्नी छत पर आकर बोली, ‘‘देखिए मैं जरा अपनी माँ के घर तक जा रही हूँ शाम को देर से लौटूँगी।’’ और वह फौरन घर की चाभियाँ मेरे पास रखकर चली गई।
मैं ‘अरे सुनो तो...’’ चिल्लाता रहा पर उसने मुड़कर भी न देखा। इधर मैं भोजनभट्ट जी का हाल देखकर अवाक् रह गया। वह बेहोश होकर छत पर लुढ़क चुके थे।
शाम को उनका लड़का मेरे घर आया और भोजनभट्ट जी को उसी हालत में साइकिल पर लादकर ले गया। वह पूरे रास्ते बड़बड़ाता गया, ‘‘कहा था एक साथ तीन-तीन घरों में दावत मत खाना। पर किसी की सुनें तब न।’’
उसी दिन भोजनभट्ट जी ने मुफ्तखोरी से तौबा कर ली।

निचली मंजिल का घर

हम लोग कई महीनों से मकान बदलने का कार्यक्रम बना रहे थे पर मकान मिल ही नहीं रहा था। तभी खबर मिली कि यमुनापार एक नई कॉलोनी बनी है मयूर विहार, जहाँ आसानी से मकान मिल रहे हैं। एक रोज हम उस कॉलोनी में गए। प्रोपर्टी डीलर से मिले तो उसने हमें कई मकान दिखाए। कुछ चौथी मंजिल पर, कुछ तीसरी, कुछ दूसरी, कुछ पहली और कुछ निचली मंजिल पर।
मकान देखकर आने के बाद हम कई दिनों तक यही सोचते रहे कि हमें कौन-सी मंजिल वाला मकान लेना चाहिए। पापा का कहना था कि चौथी मंजिल का। पर मम्मी ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ तक चढ़ने-उतरने में ही दम खुश्क हो जाएगा। फिर बच्चे गिर पड़े तो चोट अलग लगेगी। ऐसा करते हैं, पहली मंजिल का मकान ले लेते हैं, न ज्यादा चढ़ना पड़ेगा, न बच्चे सड़क पर डोलेंगे।’’ पर हमें यह कतई पसंद नहीं था क्योंकि वहाँ खेलने की जगह ही नहीं थी। सो हमने जिद की कि हम तो सबसे निचली मंजिल में रहेंगे। मम्मी-पापा को हमारी जिद के आगे झुकना पड़ा।
एक सप्ताह की मेहनत के बाद हमने अपना नया घर अच्छी तरह सजा लिया और उसमें जाकर रहने लगे।
अभी वहाँ रहते हमें दो ही दिन हुए थे कि किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। जैसे ही दरवाजा खोला एक महिला भीतर आईं और मम्मी से बोलीं, ‘‘बहन जी नमस्ते। मैं आपके ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूँ हमारी बेबी ने कंघी ऊपर से आपके लॉन में गिरा दी है, जरा उठा दीजिए।’’ मम्मी ने कंघी उठाकर दे दी। उसके बाद कभी उनकी बेबी, तो कभी दूसरी मंजिल वाली की बेबी, तो कभी तीसरी, तो कभी चौथी मंजिल वाली की बेबी कोई न कोई चीज गिरा देती। ऊपर वाली आंटियाँ वहीं से चिल्लाकर मुझे आवाज देतीं और कहतीं, ‘‘भूमिका बेटी, जरा हमारी फलाँ चीज उठाकर तो दे जाना।’’ और मुझे जाना पड़ता।
एक दिन एक साहब आए और बोले, ‘‘क्यों जी, चोपड़ा साहब ऊपर ही रहते हैं ?’’ पापा चूँकि किसी को जानते नहीं थे सो उन्होंने कह दिया, ‘‘पता नहीं।’’ वह साहब चले गए।
थोड़ी देर बाद फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा चूँकि उस दिन घर में ही थे, उन्होंने दरवाजा खोला। सोचा कोई मेहमान आया होगा। पर सामने एक भिखारी खड़ा था। उसे दस पैसे देकर किसी तरह टाला और दरवाजा बंद किया। तभी ताड़-ताड़-ताड़ दरवाजा पीटने की आवाज आई। पापा को बहुत गुस्सा आया कि अजीब बदतमीज आदमी है जो घंटी न बजाकर दरवाजा पीट रहा है।

जब दरवाजा खोला तो देखा वहाँ तो कोई नहीं है। हाँ, दरवाजे पर कई अखबार जरूर पड़े थे। पापा हैरान। इतने अखबार ! हम तो केवल दो अखबार मँगवाते हैं। तभी उनकी समझ में आ गया कि जरूर अखबार वाला जल्दी में सबके अखबार हमारे ही दरवाजे पर फेंक गया है।
मेरी फिर परेड हुई। पहली मंजिल से चौथी मंजिल तक के दरवाजे खटखटा कर उन्हें अखबार पहुँचाना पड़ा। अभी मैं नीचे पहुँची ही थी कि फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा ने दरवाजा खोला तो सामने एक सज्जन खड़े थे।
वह बोले, ‘‘नमस्ते जी, मैं इत्थे त्वाडे पड़ोस मैं रेंदा हूँ। सानू ये दस्सो इत्थे कच्चा दूध मिल्दा ए ?’’
पापा ने कहा, ‘‘नहीं।’’
‘‘होर जी मेहरी नौकर वगैरा ?’’
पापा ने कहा, ‘‘पता नहीं।’’
वे बोले, ‘‘अजी पता तो त्यानू जरूर होगा, तुसी पुराने वाशिंदे हो। खैर, कोई गल नईं, मैनूं कोई छेती लोड़ नई हैगी, जैदो त्वानूं कोई दिख जाये साडे घर भेज देना। ये कारड रख छोड़ो, इसदे विच साडा नाम होर एडरस छप्पा ए।’’ उनके जाते ही पापा सिर पकड़कर बैठ गए। तभी दरवाजा खुला देख वही सज्जन एक और आदमी के साथ आ गए जो सुबह सवेरे चोपड़ा साहब को पूछते आए थे। वे आते ही बोले, ‘‘नमस्कार जैन साहब, मैं आपका पड़ोसी हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ। आपसे परिचय नहीं था न, सो आज हमारे मेहमान को बहुत परेशान होना पड़ा। खैर, अब याद रखना जी। मैं चोपड़ा हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ, कोई आकर पूछे तो बता देना। अच्छा नमस्ते, फिर मिलेंगे।’’
पापा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचारे अभी सुबह की चाय तक नहीं पी सके थे। उन्होंने झट से दरवाजा बंद किया और फिर गुमसुम बैठ गए। तभी फिर घंटी बजी।

जैसे ही दरवाजा खोला, एक सज्जन और उनकी पत्नी भीतर आ गए। आते ही बोले, ‘‘माफ करना भाई साहब, हम दूसरी मंजिल वाले सक्सेना साहब से मिलने आए थे, पर वे तो हैं नहीं, उनके बच्चे के लिए यह मिठाई का डिब्बा लाए थे। आप उन्हें दे देना। और कहना वर्मा जी आए थे, अच्छा भाई साहब, चलें पहले ही बहुत देर हो गई है।’’
जैसे ही वे बाहर जाने के लिए उठे, मैं दरवाजा बंद करने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी। मुझे रोकते हुए पापा बोले, ‘‘रहने दे भूमिका। फिर कोई आएगा तो फिर खोलना पड़ेगा।’’
तभी पोस्टमेन आया और बोला, ‘‘क्यों जी, सक्सेना साहब कहाँ गए ?’’
पापा को गुस्सा तो आ ही रहा था, उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम मुझसे कहकर नहीं गए।’’
पोस्टमेन बोला, ‘‘साहब उनका तार है, जब वह आएं तो उन्हें पोस्ट ऑफिस भेज देना।’’ और वह चला गया।
उसके जाते ही पापा बाथरूम चले गए। मैं अपना होमवर्क करने अपनी स्टडी में चली गई और मम्मी रसोई में नाश्ता बनाने लगीं।
अचानक मम्मी के चीखने की आवाज सुनकर मैं और पापा ड्राइंगरूम में आए तो देखा सक्सेना साहब के बच्चे के लिए वर्मा साहब जो मिठाई का डिब्बा दे गए थे उसे इत्मीनान से एक कुत्ता खा रहा था। यह नजारा देखते ही पापा ने अपना सिर पीट लिया और बिना नाश्ता किए ही घर से चले गए।
दो घंटे बाद जब पापा लौटे तो उनके साथ एक ट्रक भी था। आते ही उन्होंने मम्मी से कहा, ‘‘हम तो बाज आए, निचली मंजिल का घर न हुआ सूचना केंद्र हो गया। झटपट सामान लपेटो। मैंने सादतपुर गाँव में इकमंजिल मकान किराए पर ले लिया है, अब हम वहीं रहेंगे।’’

हमसे बस एक ही रोटी बन सकी

हमारी पत्नी बहुत दिनों से घर जाने की जिद कर रही थीं मगर हम हमेशा मना कर देते थे। जब एक बार उन्होंने ताना दिया कि मैं जानती हूँ मेरे बिना घर नहीं सँभल सकता न इसीलिए आप मुझे नहीं जाने देते, तो हमने तुरंत उन्हें उनके घर भेज दिया और कह दिया कि तुम क्या समझती हो हम घर नहीं सँभाल सकते। जाओ, और जब तक तुम्हारा मन करे, अपने घर रहना।
पत्नी के जाने के बाद हम होटल पर खाना खाने लगे थे, मगर जब देखा कि होटल में खाने पर पैसे भी ज्यादा खर्च होते हैं और पेट भी खराब होता जा रहा है तो हमने घर में ही खाना बनाना तय किया। उसी दिन हम खाना बनाने की विधि नाम की एक किताब भी खरीद लाए।
अगले दिन हमने मेज पर किताब खोलकर रख ली और उसमें से पढ़कर एक गिलास आटा थाली में रख लिया। फिर किताब में लिखे अनुसार उसमें नमक मिला लिया। पानी डालकर गूँथ लिया और फिर स्टोव जलाकर उस पर तवा रख दिया। एक रोटी बेलकर तवे पर डाल भी दी। इस तरह एक रोटी तैयार हो गई।
अब हमने दूसरी रोटी बेली और तवे पर डाल दी। मगर अभी तवे पर रोटी डाले एक मिनट भी न हुआ था कि वह तवे से चिपक गई और तीन मिनट में तो जलकर राख हो गई। हमने तीसरी रोटी बेल कर डाली, पर उसका भी दूसरी जैसा ही हाल हुआ और फिर बाकी रोटियों का भी। आखिर मन मारकर हम एक रोटी खाकर रह गए। हमारी समझ में नहीं आया कि बाकी रोटियाँ जल क्यों गईं ?
हमने राजू की मम्मी से जाकर पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘तवा बहुत ज्यादा गरम हो गया होगा और तुमने एक रोटी जलने के बाद तवे को साफ नहीं किया होगा, न स्टोव मंदा किया होगा।’’
दूसरे दिन हम रोटी के झमेले में न पड़कर खिचड़ी बनाने लगे। राजू और रानी भी आ गए थे। हमने स्टोव पर कुकर चढ़ाकर उसमें एक गिलास पानी और एक गिलास चावल-दाल डाल दिए। तभी राजू बोला, ‘‘भाई साहब, दो गिलास पानी और डालिए।’’ तभी रानी बोली, ‘‘नहीं भाई साहब, एक गिलास और डालिए।’’ हमने किताब में देखा। उसमें लिखा था। मनमर्जी। सो हमने तुरंत दो गिलास पानी राजू के कहने पर और एक रानी के कहने पर और एक गिलास अपनी मर्जी से डाल दिया। कुकर बंद कर सीटी लगाई और गप्पें मारने लगे।

इधर हम गप्पें मारते रहे उधर सीटियाँ बजती रहीं। अचानक घड़ाम की आवाज पर हम तीनों ने स्टोव की तरफ देखा। हमारा कुकर जमीन में ओंधा पड़ा था। तमाम खिचड़ी पास में टंगे कपड़ों पर जा लगी थी। हमें काफी देर ढूँढ़ने पर भी कुकर का ढक्कन नहीं मिला। अचानक राजू ने हमें बताया, ‘‘भाई साहब, ढक्कन तो छत से चिपका पड़ा है।’’
अगले दिन इतवार था। हमारे तमाम कपड़े खिचड़ी में सन चुके थे। हमने सोचा, क्यों न आज कपड़े ही धो डालें। हम कपड़े और टब लेकर बाथरूम में जा पहुँचे। टब में कपड़े डालकर नल खोल दिया।
अचानक हमें ध्यान आया कि साबुन तो है ही नहीं। हम तुरंत पैसे लेकर बाजार गए, मगर इतवार को तो हमारे यहाँ का बाजार बंद रहता है। अब क्या हो ? हमने तुरंत बस पकड़ी और दूसरी कॉलोनी जा पहुँचे। वहाँ से साबुन लेकर लौटे तो अपने घर का हाल देखकर हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं।
हुआ यह कि हम तो नल बंद करना ही भूल गए थे। इधर इस बीच दो ढाई घंटे नल लगातार चलता रहा सो पूरे मकान और गली में पानी भरा पड़ा था। हमारे कपड़े गली में पानी पर ऐसे तैर रहे थे जैसे समुद्र में मोटरबोट चल रही हो।
हमने झटपट कपड़े समेटे। नल बंद किया और कपड़े व टब कमरे में पटककर मकान में ताला डाल तुरंत पत्नी के मायके जाने वाली गाड़ी में जा बैठे। अगले दिन उन्हें किसी तरह मनामनूकर घर ले आए।
अब उसी दिन से हमारी पत्नी जब देखो तब ताना देती रहती हैं, ‘‘कहो बड़े आए थे घर चलाने वाले। पता लग गया न घर चलाना हँसी खेल नहीं है।’’
अब हम सिर झुकाए चुपचाप उनकी बात सुनने के सिवा कर भी क्या सकते हैं।

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