जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
पैरिस में मौका निकालकर भारत के राजदूत भी आकर भेंट कर गए। बार में बैठे-बैठे एक गिलास वाइन पीते-पीते हल्की-फुल्की बातचीत भी हुई। इस 'बार' का नाम है-अर्नेस्ट हेमिंग्वे! अपने पैरिस जीवन में अर्नेस्ट हेमिंग्वे इसी 'बार' में वैठकर शराब पीते थे!
सुबह एडीशन स्टॉक! वहाँ विभिन्न अख़बारों के पत्रकार आए हुए थे। मुझे अफसोस हुआ कि उन लोगों के लिए कुल पाँच मिनट का समय तय किया गया था। मेरा वक्त इतना क़ीमती है, मैं पहले नहीं जानती थी। विश्वविद्यालय से ही चंद लड़के-लड़कियाँ बातचीत करने आ पहुंचे। उन विद्यार्थियों को कुल दो मिनट दिए गए।
वहाँ से रेडियो रेडियो के पहले दर्जे के निदेशक गेट पर मेरी अगवानी के लिए आ पहुँचे। वैसे वे भी पिछवाड़े के रास्ते से ही आए थे। सभी इमारत-बिल्डिंगों में एक पिछला दरवाज़ा भी होता है, अगर उस रास्ते से आवाजाही नहीं होती तो किसी दिन मुझे पता भी नहीं चलता। फ्रांस इंटर जर्नल! काफी गुरु-गंभीर वैचारिक कार्यक्रम! अन्यान्य रेडियो भी पहले मेरा इंटरव्यू ले चुके हैं। यह कार्यक्रम उन सवसे विल्कुल अलग था। कार्यक्रम ख़त्म होने के वाद होटल वापसी! फ्लैक की तरफ से मेरे होटल के कमरे में पाँच सौ से भी अधिक कितावें पहुँचायी गयी थीं। इन कितावों पर हस्ताक्षर करने थे। पुलिस वालों ने भी मेरी कितावें खरीद रखी थीं। उन लोगों ने भी मुझसे इन पर हस्ताक्षर कराए। पुलिस फौज मेरे कमरे की वगल वाले कमरे में मौजूद रहती थी। वे लोग मेरे साथ बाहर नहीं जाते। उनकी ड्यूटी है, मेरे कमरे की पहरेदारी करना, चाहे मैं कमरे में रहूँ या न रहूँ।
पैरिस के विश्वविद्यालयों से भी आमंत्रण आया था। नारीवादी जिशेल आलिमी, मिशेल पेरो, जूलिया क्रिस्टवा से लेकर यहाँ की तमाम नारीवादी हस्तियाँ मंच और दर्शकों के आसन पर छायी हुई। खैर, जो चाहे जितनी भी बड़ी नारीवादी हो, में चाहे जितनी भी क्षुद्र चींटी होऊँ, मुझे ही आकर्षण का केंद्र बनाकर, कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। मैं संकोच से गड़ी रहती हूँ। मेरे इस संकोच पर बहुतेरे लोगों की नज़र भी पड़ती है। अचानक जब मैं उदास या खिन्न हो उठती हूँ, तो मुझे यह कहकर तसल्ली दी जाती है कि यहाँ की नारीवादी हस्तियों को 'थ्योरी' की वख़बी जानकारी है। उन लोगों ने मोटी-मोटी कितावें लिखी हैं, लेकिन तुमने बिल्कुल अलग कारनामा कर दिखाया है। वेहद जोखिम भरा कारनामा। पिछड़े हुए, पुरातनपंथी मुस्लिम समाज की पीठ पर तुमने चाबुक से आघात किया है। शायद तुम्हें भी अंदाज़ा नहीं है कि तुमने कौन-सा कारनामा कर दिखाया है। नहीं, तुम नहीं जानतीं। लोग वेवजह ही तुम्हें लेकर हिस्टीरियाग्रस्त नहीं हो उठे हैं। वे सभी लोग उच्च-शिक्षित हैं, बुद्धिवादी हैं। तुम क्या समझती हो, ये जो मंत्री तक तुमसे मिलने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते हैं? आम लोगों में तुम्हारी जन प्रियता, आसमान छू रही है।"
मैंने हताश लहजे में क्रिश्चन से ही कहा, "मुझसे बोलने को कहा जाता है, मैं बोल भी देती हूँ। लेकिन मैं अपनी बात ठीक तरह समझाकर जो नहीं कह पाती।"
"सुनो, व्याख्यान देने के लिए तो बहुतेरे लोग मौजूद हैं। तुम व्याख्यानबाज़ नहीं हो। यह तुम्हारा काम भी नहीं है। तुम लेखिका हो! यही तुम्हारा परिचय है। लोग रास्ता-घाट, यहाँ-वहाँ विभिन्न कार्यक्रमों में उमड़े पड़ते हैं, तुम्हें देखने के लिए...आमने-सामने देखने के लिए। वे लोग तुम्हें देखकर ही परम तृप्त हैं।"
शाम को पुरस्कार समारोह! यह पुरस्कार फ्रेंच सरकार की तरफ से दिया जाने वाला था। इस पुरस्कार का नाम है-प्रो दद्रीया-द-लोम। सीधी-सादी बाग्ला भापा मेंमानवाधिकार पुरस्कार। आम तौर पर गैर-सरकारी संस्थाएँ इस क़िस्म के मानवाधिकार पुरस्कार प्रदान करती हैं, लेकिन सरकारी पक्ष से इस पुरस्कार का दिया जाना, यह सोचकर काफी अच्छा भी लगता है। विदेश मंत्री कार्यालय, जिसे असल में कार्यालय कहना गलत होगा, उसे प्रासाद कहना चाहिए। हाँ, तो विदेश मंत्री प्रासाद में, फ्रांस के विदेश मंत्री ने मुझे मानवाधिकार पदक से सम्मानित किया। कुछ महीनों बाद, वही विदेश मंत्री, एलेने जुपे, कुछेक महीनों बाद ही प्रधानमंत्री बन जाएँगे, उस वक्त कौन जानता था। मैंने उनके हाथों से सोने का मेडल और एक लाख पचास हज़ार फ्राँ का सम्मान ग्रहण किया। विदेश मंत्री के भाषण के बाद मैंने सूखा-सूखा-सा धन्यवाद अर्पित किया।
सोने का पदक लेने के बाद परिस यूनिवर्सिटी! वहाँ फ्रेंच विशेपज्ञां न मेरे बारे में व्याख्यान दिए। उनमें कोई दर्शन का, कोई साहित्य का, कोई समाज तंत्र का और कोई इतिहास का विशेपज्ञ था। उन सव मशहूर अकादमिक लोगों के वाद, मेंने भी मिनमिनाते लहजे में अपना हल्का-फुल्का-सा वक्तव्य पेश किया। सच पूछे तो मेरे पास वोलने को आखिर है भी क्या? मेरी जंग, मेरे जीवन, मेरे लेखन के बारे में सारी-सारी खोज, सारी पड़ताल तो ये लोग कर रहे हैं। मैं तो अचरज से मुँह वाए वस देखती रहती हूँ। समूचा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ। विश्वविद्यालय के शिक्षक-शिक्षिकाएँ वहाँ दर्शक बने मौजूद थे।
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