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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


रात ला मेजो में डिनर ! काँच से निर्मित खूबसूरत रेस्तराँ! मछली के साथ सफेद वाइन, गोश्त के साथ लाल ! फ्रेंच रिवाज़ के मुताबिक खाने का निवाला मुँह में डालती हूँ और वाइन की छूट भरती हूँ। मुझे यहीं से साफ़ नज़र आता रहा, नेपोलियन की समाधि पर चिराग जल रहा था। एफिल टावर पर एड्स-विरोधी प्रतीक लाल रिबन टाँगा गया है! मैं, ऐस्टनी और क्रिश्चन रेस्तराँ में पहुँच चुके थे। जिल भी आ गयी। कुछ देर बाद संस्कृति मंत्री तूबो भी आ पहुँचे। मेरे रेस्तराँ में होने की ख़बर पाकर, वे भी मिलने आ पहुँचे। वे सपत्नीक आए थे। उन्होंने अपनी पत्नी से भी परिचय कराया।

कनाडा से रेडियो-इंटरव्यू लिया गया। कनाडा का और एक रेडियो फ्रांस में आ पहुंचा। उन लोगों के साथ दुभाषिए के तौर पर फ्रांस भट्टाचार्य भी आए। फ्रांस मेरी कविताओं का प्राथमिक अनुवाद कर रहे हैं। अंत में, कोई फ्रेंच कवि उसकी जाँच-परख करेंगे। फ्रांस अच्छी बांग्ला बोलते हैं। मेरा विश्वास है कि वे अनुवाद भी अच्छा करते हैं। अगर कहीं अटक जाते हैं, तो स्वामी लोकनाथ से पूछकर जान सकते हैं, यह भी बहुत बड़ी तसल्ली है।

अब मितेरों से मिलने के लिए दौड़ना होगा। मितेरों अपने एलिजे प्रासाद यानी प्रेसीडेंट निवास में बैठे हुए थे। मितेरों साहब ने फ्रेंच में बातचीत की। वहाँ फ्रेंच-अंग्रेजी का एक दुभाषिया भी मौजूद था। मितेरों ने बांग्लादेश की राजनीति के बारे में दरयाफ्त किया। मेरे लेखन के बारे में पूछा। इन दिनों मैं कहाँ हूँ, किस हाल में हूँ। उन्होंने इरशाद की खोज-खबर ली। जेल में बड़े हुए इरशाद पर उन्हें शायद थोड़ा-बहुत रहम भी आया हो तो पता नहीं। उन्होंने बताया कि कभी वे भी बांग्लादेश जा चुके हैं, किसी बाढ़ के समय! खैर, बांग्लादेश का शायद मतलब ही है-बाढ़, सूखा, अभाव और खून-जख्म!

उस कमरे में अंतोयानेत फुक भी थीं। मितेरों को फुक ने शायद बताया कि मैं उनकी मेहमान वनकर फ्रांस आयी हूँ, मितेरों बीमार थे, प्रोस्टेट कैंसर के शिकार थे। ज़्यादा चल-फिर नहीं सकते। घर में ही रहते हैं! फुक मेरी देखभाल जतन से कर रही हैं, इसके लिए उन्होंने उन्हें बार-बार धन्यवाद दिया। फुक ने भी विनीत मुद्रा में उनका ध्यान क़बूल किया। मितेरों जब मेरे सामने बैठे हुए थे, वह छुटका-फुटका इंसान बेहद साधारण और सच्चा इंसान लगा। ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगा कि वे फ्रांस जैसे देश के राष्ट्रपति हैं। इसके बावजूद उनकी भाव-भंगिमाओं, उनकी हँसी, उनकी जिज्ञासा, किसी भी आम इंसान जैसी, आम इंसान जैसी ही उनकी बीमारी और कमजोरी का अहसास! इंसान तो सभी एक जैसे होते हैं, वशर्ते उनका नक़ाव या मुखौटा, न उतार लिया जाए या उनका अभिनय या परिचय न ढक दिया जाए।

जव मैं एलिजे प्रासाद से वाहर आ रही थी, बाहर पत्रकारों की भीड़ चींटियों की तरह किलबिल कर रही थी। नहीं, मैं वहाँ रुकी नहीं! रुकने का वक्त ही कहाँ था, जब उड़ान तक का वक्त नहीं रहा।

मानवाधिकार संगठनों ने सम्मान प्रदान किया वहाँ भी प्रचुर दर्शक! वहाँ भी तुमुल तालियाँ और पदक!

होटल द विले में भी कार्यक्रम! कार्यक्रम का मतलब ही था, मेरा व्याख्यान! पेरिस नगर इसका आयोजक था! यहाँ के गण्यमान्य लोग मेरी बातें कितना समझाते हैं, मुझे नहीं पता। लेकिन जब मैं इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ़ वात करती हूँ, जबर्दस्त तालियाँ मिलती हैं, लेकिन मैंने गौर किया, उस दिन क्रिश्चन ने जब कट्टरवाद या ईसाई धर्म के खिलाफ़ वक्तव्य दिया तो किसी ने भी ताली नहीं बजायी। उसी वक्त मेरे मन में सवाल जागा, कहीं ऐसा तो नहीं कि जो लोग मेरा समर्थन कर रहे हैं, उनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मेरा समर्थन इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि मैं सिर्फ इस्लाम के विरुद्ध वोलती हूँ? उन लोगों को यह जानकारी ज़रूर होगी कि जब मैं नारी-अधिकार की बात करती हूँ, तो सभी धर्मों की समालोचना करती हूँ, या वे लोग यह नहीं जानते? यानी वे लोग मुझे हरदम पसंद नहीं करते! किसी वक्त करते हैं, किसी वक्त नहीं करते। वे लोग क्या मेरे दोस्त हैं? हरगिज़ नहीं! लेकिन बहुतेरे लोग हैं, फ्रेंच, ईसाई या यहूदी लोग, जो सिर्फ इस्लामी कट्टरवाद पर बोलने से ही संतुष्ट नहीं होते, वे लोग चाहते हैं कि मैं उनके भी धार्मिक कट्टरता के खिलाफ़ भी वार करूँ। उन लोगों का कहना है कि मेरे प्रतिवाद का निश्चित रूप से काफी मोल है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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