जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
क्रिश्चन ने कहा, “खोलकर देखो, यह तुम्हारे घनिष्ठ मित्र की कलाकृति है।"
सच पूछे तो अगर मुझे बताया न जाए, तो यह वाल्टयर है, यह मेरी समझ में ही नहीं आता। ऐसी अशिक्षित, गँवार को सर्वकालिक, सर्वज्ञानी का सम्मान दिया जा रहा है। वह भी फ्रांस के अति-ज्ञानी लोगों के द्वारा।
सुना है, स्वर्ग में ज़बर्दस्त ऐशो-आराम का इंतज़ाम है लेकिन अगर कोई परम धार्मिक भी धरती पर उतर आए और मेरे इस रित्ज़ होटल में खाने-पीने, नहाने-सोने का आराम देखकर, यह क़बूल करने को लाचार हो जाएगा कि इतने ऐशो-आराम की कल्पना उसने स्वर्ग में भी नहीं की थी। लेकिन मैं यहाँ का ऐश-विलास भूलकर, मुझे अगर बूंद भर भी वक्त मिलता है, तो अपने होटल कमरे से ढाका, मयमनसिंह, कलकत्ता फोन करने वैठ जाती हैं। ऐसे महँगे होटल से फोन करने का मतलब है, अपनी गर्दन कटाना। लेकिन यह बात मेरे दिमाग में घुसे, इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। क्रिश्चन ने एक बार सिर्फ दबी जुवान से मुझे आगाह किया था बस, इतना भर ही! बाद में मेरी प्रकाशन-संस्था ने ही, मेरे कई दिनों के फोन-बिल के तौर पर, पैंतीस हज़ार फ्राँ का भुगतान किया। इस प्रकाशन ने मेरे लिए काफी किया है। मेरे लिए बाज़ार में उपलब्ध सबसे आधुनिक मॉडेल का लैपटॉप कंप्यूटर खरीदकर इंग्लैंड से भेजा है। चूंकि मुझे अंग्रेजी ऑरेटिंग सिस्टम चाहिए था, इसलिए पैरिस से लंदन जाकर, वहाँ लैपटॉप खरीदा और पेन के राइटर्स-इन-प्रिजन कमेटी के प्रेसीडेंट जोयान लैडरमैन के जरिए स्टॉकहोम भेजा। हालाँकि उन्होंने मेरा लैपटॉप देने के लिए ही जोयान को भेजा था, यह कहना गलत होगा। वे मुझसे मिलने के लिए यूँ भी आने वाले थे। स्टॉकहोम आकर वे ग्रैंड होटल में ठहरे थे। मुझे लैपटॉप थमाकर उसे मुझसे दो-चार बातें करने का मौका मिल गया। उन दिनों में भयंकर उभ्रांत हाल में थी। किसी से भी बात करना, मुझे अच्छा नहीं लगा रहा था। ऐसा होता है। दुनिया भर के तमाम आग्रह-आकर्षण एकदम से फुर्र हो जाते हैं, चारों तरफ की घटनाएँ इस क़दर धुआं बिखेर देती हैं कि उसमें अपने को पहचाना नहीं जा सकता था यूँ कहें कि घटनाओं की घनघटा में अपनी ही आँखों के आगे ऐसा धुंधलका छा जाता है या पर्दा पड़ जाता है कि सब कुछ देखते हुए भी ऐसा लगता है कि कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है।
फ्रांस में, मैं काफी कुछ रोबोट जैसी हो गयी थी। सिर्फ किसी बड़ी तारिका के कर्त्तव्य और दायित्व निभाती चली गयी। सैकड़ों आग्रह-अनुरोध खारिज करती रही। सब कुछ छोड़-छाड़कर पैरिस शहर के रास्तों पर निकल पड़ने की तीखी चाह जागती है, बिल्कुल बच्चों की तरह! लेकिन कोई मुझे बच्चा बनने नहीं देता। वक्त बदल चुका है। वक्त को किसने बदल दिया? कट्टरवादियों ने? वे लोग नहीं, तो और कौन? मैं तो जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी हूँ। फिर वक्त को किसने बदल दिया? मेरा वह दो महीनों का अंधेरा जीवन! मौत के आमने-सामने जीने की होड़! दुनिया में सैकड़ों-हज़ारों वागी लोगों ने, मेरे मुक़ाबले लाखों गुना ज्यादा दुःसह जीवन गुज़ारा है। उन्हें लेकर तो इतनी अतिशयता विल्कुल नहीं दिखायी जाती। सच तो यह है कि मुझसे जो कहने को कहा जाता है, मैं करती ज़रूर हूँ, मगर मैं यह भी समझती हूँ कि मुझे यह सब शोभा नहीं देता।
एक कार्यक्रम से दूसरे कार्यक्रम की तरफ दौड़ते हए. वीच में दो दिन. क्रिश्चन वंस ने कहा भी था, “डार्लिंग, अपनी नाक पर ज़रा पाउडर पफ कर लोगी?''
मैंने फौरन अपनी नाक टटोलकर देखा, नाक कहीं, कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गयी। मैंने दोनों ही दिन साफ-साफ सुना दिया कि नाक पर पाउडर पफ करने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है। बाद में, वहुत-बहुत वाद में मुझे पता चला कि नाक पर 'पाउडर पफ करने' का मतलब है, टॉयलेट जाकर, पेशाव वगौरह से निवट लेना। औरतों के लिए यही नियम है। मर्दो के लिए संकेत-वाक्य है-'हाथ धो आना'। भई मुझे पश्चिमी सभ्यता की जानकारी कैसे और कहाँ से होती? मुझे पेशाब लगती है तो मैं सीधे-सीधे कहकर जाती हूँ कि पेशाब के लिए जा रही हूँ। जिस समाज में मुझे छोड़ दिया गया है या गले में रस्सी डालकर जिन इलाकों में घुमाया जा रहा है, उस समाज में मैं 'मिसफिट' हूँ, यह बात भले मैं न समझ पाऊँ, वे लोग ज़रूर मुझसे ज़्यादा समझ रहे होंगे।
विज्ञान अकादमी का पुरस्कार खुद ग्रहण करने का मेरे पास समय नहीं है। सुबह से रात तक व्यस्तता! 'लाइसिटी इन यूरोप' से मैं पहले ही वादा कर चुकी हूँ। यह यरोप का सेकुलर मानववादी संगठन है। किश्चयन ने उन लोगों को पहले ही आगाह कर दिया था कि पंद्रह मिनट से एक भी मिनट ज्यादा वक्त उन्हें नहीं दिया जा सकता। सभी लोग कान्फ्रेंस-रूम में मेरा इतज़ार कर रहे थे। मुझे फटाफट फूल, पदक, ताँबे की मूर्ति वगैरह अपनी मर्जी के अभिनंदन-पुरस्कारों से सम्मानित किया। मैं फूल और उपहारों से भर उठी। सभी लोग लाइन में खड़े होकर, बारी-बारी से मुझसे हाथ मिलाते रहे। समय की कमी की वजह से मुझे सभी लोगों से हाथ मिलाने का मौका नहीं मिला।
एक औरत रो-रोकर कहती रही, “तुम हमारी हो! तुम्हारी जंग, हमारी जंग है।"
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