जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
वहाँ ला धुमानिते पत्रिका की संपादिका भी आयी थीं। चूँकि वे कम्युनिस्ट पत्रिका की सम्पादिका थी, इसलिए उनकी खातिर करते हुए मैंने अलग से उन्हें थोड़ा वक्त दिया। दोपहर को एफिल टावर के शिखर पर स्थित, जूल वन रेस्तरां में लंच! वहाँ हम चुटकियों में पहुंचना चाहते थे। मुझे बताया गया कि वहाँ खाना खाने के लिए, कई महीनों इंतज़ार करना पड़ता है। वहाँ पहुँचकर मैंने देखा कि आम-पब्लिक को एफिल टावर के आस-पास भी फटकने नहीं दिया जा रहा है। पूरा-का-पूरा एफिल टावर मेरे लिए खाली करा लिया गया है। एफिल के शिखर पर टीवी फिट किया
गया है। टीवी समाचार में मुझे भी दो-चार वाक्य बोलना होगा। मैं क्रिश्चन पर वदस्तूर भड़क गयी। हर पल इतने-इतने इंटरव्यू देते-देते मुझे झुंझलाहट होने लगी थी लेकिन प्रकाशकों को यह बेहद पसंद है। खैर, मैं कोई प्रकाशक तो थी नहीं! क्रिश्चन, बाकी लेखक वर्ग भी चातक पक्षी की तरह प्यासी निगाहों से देखते रहते हैं, लेकिन यह सब उनका नसीव नहीं होता।
मैंने क्रिश्चन से पूछा भी, “तुम क्या फ्रेंच लेखकों की बात कर रही हो?"
उसने सिर हिलाते हुए जवाव दिया, “और किनकी वात करूंगी?"
एफिल टाबर के सर्वोच्च शिखर पर जूल वन रेस्तरां! उस शिखर से मैंन समूचे पैरिस शहर का नज़ारा किया। दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर! सपनों का शहर! उस शिखर पर भी मेरे लिए कैमरा, रोशनी फिट की गयी थी। मुझे सिर्फ एक वार सामने जाकर वैठना था। मुझसं दो-चार सवाल किए जाने थे, क्योंकि आज ही अँ-दान आलिए, नामक एक लेखक ने कहा है कि बांग्लादेश में औरत की स्थिति बहोत अच्छी है, क्योंकि उस देश की प्रधानमंत्री औरत है। पश्चिम में यह जो में यह ख़बर फैलाती फिर रही हूँ कि वहाँ औरतें निर्यातन और शोपण की शिकार हैं, सब झूठ है। मैं खुद कोई लेखिका-वेखिका नहीं हूँ। मैंने कभी कोई किताव नहीं लिखी। 'लज्जा' किताब भी किसी और ने लिखी है। वे लेखक जनाव अभी हाल ही में ढाका गए थे। वे खुद अपनी आँखों से देख आए हैं कि वहाँ औरत-मर्दों को समान अधिकार है और वहाँ की औरतें पश्चिमी देशों की औरतों से ज़्यादा आज़ाद हैं। बांग्लादेश में अनगिनत अच्छे-अच्छे, काविल लेखक हैं। साहित्य के बारे में मुझे कोई ज्ञान-वान नहीं है। फतवा की ख़वर भी झूठ है। किसी ने इसके खिलाफ़ कोई फतवा जारी नहीं किया; किसी ने उसके सिर के मोल की घोपणा नहीं की।
टेलीविजन कैमरा मेरे सामने था! रोशनी मेरे चेहरे और आँखों पर! मानो मुझे कठघरे में खड़ा किया जा रहा हो। मैं मुजरिम हूँ। मैं झूठी हूँ। अव कहाँ जाओगी, जनाब? अव क्या जवाव दोगी, सुंदरी?
मैंने सिर्फ इतना ही कहा, “ये सारे आक्षेप झूठ हैं। मैंने जो कहा है, विल्कुल सच कहा है। अपनी किताव मैं खुद लिखती हूँ। उन्होंने बांग्लादेश में जो कुछ देखा, वही सब कुछ नहीं है और वहाँ प्रधानमंत्री या विरोधी दल की नेत्री महिला हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि समाज में औरतों की स्थिति बहुत अच्छी है। मैंने यह भी कभी नहीं कहा कि वांग्लादेश में मैं कोई बहुत बड़ी साहित्यकार हूँ। अगर किसी और ने ऐसा कुछ कहा हो, तो...! मैं मामूली-सी लेखिका हूँ। मामूली होने के बावजूद, मेरे खिलाफ़ फतवा जारी किया गया है। सिर का मोल लगाया गया है! दुनिया भर के पत्रकारों ने यह सब देखा है, ख़बरें लिखी हैं, डॉक्यूमेंटरी बनायी है। मैंने कुछ नहीं किया! मैं भला दुनिया में ऐसी ख़बर कैसे फैला सकती हूँ? मैं कोई पत्रकार तो हूँ नहीं।"
मेरा मन कड़वा हो आया। मेरी परेशानी और कड़वाहट, फूंक में उड़ाते हुए क्रिश्चन बेस ने कहा, "इन सबके बारे में वह आदमी बेहद बदनाम है। बेसिर-पैर की बातें फैलाकर वह लोगों का ध्यान आकर्पित करने की कोशिश कर रहा है। उसका कोई यकीन नहीं करेगा। तुम परेशान मत हो।"
लेकिन, किसी-न-किसी का ध्यान तो आकर्षित किया ही है।
"सुनो,' क्रिश्चन ने कहा, “ज़्यादा मशहूर होने पर, दो-एक दुश्मन तो पैदा ' हो ही जाते हैं। ज़रा अपने देश के बारे में सोचो। वहाँ के लेखक-साहित्यकारों में
क्या सबने तुम्हारा समर्थन किया? किसी ने तुमसे ईर्ष्या नहीं की?"
"लेकिन मैं फ्रांसीसी तो हूँ नहीं! फ्रेंच भाषा मैं लिखती भी नहीं। मैं तो उस आदमी की प्रतिद्वंद्वी नहीं हूँ, फिर वह मुझसे ईर्ष्या क्यों करेगा?"
"इसलिए कि किसी भी लेखक के बारे में इतनी उत्तेजना नहीं फैलती! किसी भी लेखक को यूँ तारे-सितारे जैसी लोकप्रियता नसीब नहीं होती। सारा-का-सारा आकर्षण तुम्हारी तरफ केंद्रित हो गया है। वह आदमी तुम्हारे बारे में उलटा-सीधा कुछ बोलेगा ही। सारा कुछ उलट-पलट देने की कोशिश करेगा। वह आदमी सिर से पाँव तक बहसबाज़ है।"
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