जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
जँ आलिए की निंदा की वजह से फ्रांस में मेरी लोकप्रियता में कितना भाटा पड़ा या पड़ा भी या नहीं, इसकी खोज-खबर मैंने नहीं रखी। मेरे फ्रांसीसी प्रकाशक मेरी किताव के प्रकाशन के लिए धीरे-धीरे बेहद बेचैन हो उठे। बेस्ट सेलर की लिस्ट में फ्रांस की जनप्रिय किताबों की तालिका में 'लज्जा' अर्से पहले प्रकाशित हो चुकी है। प्रकाशन के बाद इतने दिन गुज़र गए अभी भी...! 'लज्जा' पर हार्ड कवर, पॉकेट, सेमी पॉकेट, सेमी-सेमी पॉकेट के अलावा और भी कितने-कितने एडीशन स्टॉक टूट पड़े हैं।
"नया क्या लिखा है, लाओ मुझे दो।"
"नया कुछ भी नहीं है, नई किताव लिलूँगी, दे दूंगी।" मेरा जवाब होता है।
मेरे इस 'दूंगी' शब्द पर किसी को भी भरोसा नहीं आया।
"ठीक है! अपनी जो पुरानी रचना है, वही दे दो।"
पुरानी रचनाओं में निर्वाचित कलाम' है। उसमें कुछ-कुछ अंश, एडिस द फाम, बुटकारी मारकर, ‘फाम मेनिफेस्टिभू' के रूप में छाप चुका है। इसलिए यह किताब भी नहीं चलेगी।
"कोई उपन्यास नहीं है?"
"उपन्यास? उसकी तो मत पूछो।"
"मत पूछो, मतलब? पहेली बुझाना छोड़ो।"
"नहीं, मैं सच कह रही हूँ। मैंने जो लिखा है, प्रकाशकों के दबाव में आकर लिखा है। उपन्यास के नाम पर ख़ास कुछ नहीं बना। देखती हूँ, कभी उन्हें बड़े रूप में लिखुंगी, मेरा मतलब है, उपन्यास जैसा कुछ लिखने की कोशिश करूँगी।"
"कब करोगी कोशिश?"
"करूँगी!"
"आजकल तुम इतनी व्यस्त रहती हो! अभी तुम बैठकर उपन्यास लिखने में हाथ लगाने का वक्त नहीं निकाल सकतीं।"
"लेकिन इंतज़ार तो तुम्हें करना ही पड़ेगा। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है।"
"उपाय है क्यों नही? वही सब, लाओ दो, वही छाप लूंगी।"
"तुम क्या पागल हो गयी हो? वह सब छापोगी तो लोग तुम्हारे प्रकाशन को बदनाम करेंगे, मेरी भी निंदा करेंगे। कहेंगे कि मुझे लिखना ही नहीं आता। इसके अलावा वे किताबें बिकेंगी भी नहीं।"
"वह मैं देखेंगी-"
"सुनो, तुम अभी समझ नहीं रही हो-"
"ठीक ही समझ रही हूँ। ऐसा करो, अब तक जो-जो उपन्यास लिखे हैं, रानी बेटी की तरह, मुझे सौंप दो।"
“अच्छा, सुनो, अगर तुम छापना ही चाहती हो तो मेरी कविताएँ छाप लो,
उपन्यास मत छापो।"
"कविताएँ भी छापूँगी। हालाँकि एडीशन स्टॉक ने अब तक किसी की भी कविताएँ प्रकाशित नहीं की हैं। लेकिन तुम्हारी करूँगी।"
"यह तुम क्या कहती हो? फ्रांस के बारे में मुझे तो यही पता था कि यह कविताओं का देश है।"
"यह सब फालतू बात है।"
"फालतू बात क्यों होने लगी?"
"जाने कब, किस युग में, किन लोगों ने कविताएँ लिखीं। अब वह ज़माना नहीं रहा। कोई भी प्रकाशक भले ही और कुछ छाप ले, कविताओं की किताब नहीं छापता।"
"तो क्या तुम यह कहना चाहती हो कि बाज़ार में कविताओं की कोई किताब है ही नहीं?"
"नहीं, कविताओं की किताबें भी मिल जाएँगी। बस वही पुराने कवियों की किताबें! सरकार भी हर साल कविता-सप्ताह का आयोजन करती है। कोई-कोई प्रकाशक काफी कम खर्च में। कविताओं की कुछ किताबें छापते हैं, लेकिन छपाई का खर्च उन्हें सरकार से मिलता है।"
“यह तुम क्या कहती हो?" इसके आगे कुछ कहने की मुझमें जैसे ताकत नहीं बची। मैं इतनी विमूढ़ ! इतनी विस्मित हो आयी! अगर फ्रेंच कविताओं का यह हाल है तो मेरी कविताएँ क्यों छापना चाहती हो? यह सवाल करना चाहकर भी, मैंने नहीं किया, क्योंकि मुझे लगा, इसका जवाब देते हुए क्रिश्चन चक्कर में पड़ जाएगी। वैसे कोई चक्कर पड़ जाएगा या सकुचा जाएगा, यह सोचकर मैं कोई भी ज़रूरी बात, आम तौर पर छिपाती नहीं! लेकिन विदेश मुझे थोड़ा-थोड़ा करके बहुत कछ निगलना सिखा गया है।
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