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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :9789352291526

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


मेरी सारी पुरानी किताबें-फेरा, शोध, भ्रमर कहियो...अपरपक्ष वगैरह, जो सब आलतू-फालतू थीं, मैं उनमें हल्का-फुल्का-सा सुधार-बदलाव करूँ, उससे पहले ही उन किताबों का फ्रेंच अनुवाद हो गया। उनका अनुवाद सचमुच कुछ बना या नहीं, यह समझना मेरे वश की बात नहीं है। वे किताबें मेरे हाथ में आ गयीं! साफ-सुथरी, चमचमाती किताबें! मैंने उन्हें उलट-पलटकर रख दिया। किसने अनुवाद किया, वह क्या सच ही बांग्ला का जानकार है, फ्रेंच में सुयोग्य है या नहीं, मैं इस बारे में कुछ भी नहीं जानती। रातों को अचानक नींद टूट जाती है और मेरे मन में सवाल जाग उठता है कि ये मेरी किताबें बिक रही हैं या मैं बिक रही हूँ? मेरी जिंदगी की कहानी बिक रही है? मेरा दम घुटने लगता है। चारों तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा लगता है।

सर्दी बदन को चुभने लगी है। चारों तरफ बर्फ बिछी हुई। समूचे यूरोप में उत्सव शुरू हो गया है। क्रिसमस का उत्सव! नगर-गाँव-देहात रोशनी से झिलमिला उठे हैं। दुकान-पाट में भीड़-ही-भीड़! लोग पागलों की तरह उत्सव में मगन हो उठे हैं। मैं असहाय खड़ी-खड़ी यह पागलपन देखती रहती हूँ। देखती हूँ और दर्द से भर उठती हूँ। तकलीफ से कसकती रहती हूँ।

जैसे भारत अपने मन्दिर को लेकर,
मस्जिद को लेकर सऊदी अरब, ईरान, मिस्र, पाकिस्तान,
वैसे ही गिरजे को लेकर यहाँ,
इस यूरोप में जारी है अतिशयता!
कैथेड्रल है, शहर का मुकुट,
अभी भी लगती है भीड़, आलोकित गिरजों में,
ईसा के जन्मदिन पर सजते हैं घर-घर पाइन के पेड़,
बच्चे लिखते हैं ख़त, उत्तरी ध्रुव के सान्ताक्रुज़ के नाम।
अभी भी वे नहीं बने इन्सान, अभी भी हैं क्रिस्तान्।
दुनिया की राह पर चलते-फिरते नज़र आते हैं,
सिर्फ हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, यहूदी, मुसलमान,
कहीं नज़र नहीं आता इन्सान!

हल्की-सी बूंदाबांदी या आसमान में छाते ही बादल,
घर में मच जाती थी खुशहाली की धूम,
दिन-दिन भर हो-हुल्लड़,
दादी-माँ की झोली से निकल पड़ते थे, कहानी किस्से
जम उठती थी गपशप की महफिल!
कोई-कोई पूरे दम से छेड़ देता था वर्षा-गीतों की कली,
कोई बैठा-बैठा चबाता था, गरम-गरम मूँगफली,
हाथों में मसालेदार मुरमुरे, धुंधुवाती हुई चाय,
तास या वेगाटरी का खेल,
कोई-कोई उतर पड़ता था, आँगन की रिमझिम बरसात में,
भुनी हुई खिचड़ी और तली हुई ईलिस मछली की खुशबू से,
महमहा उठता था घर-द्वार!

और यहाँ आकाश में छाते ही मेघ, लोग हो आते हैं उदास,
उतरते ही बरसात, होते हैं नाराज़,
मुझे बेहद अचरज होता है,
इनके यहाँ नहीं है, बारिश का मौसम,
नहीं है कालबैशाखी, कोई नहीं चुनता आम के टिकोले,
न है, पानी में भीगकर, बीमार होने का सुख,

नहीं, कुछ भी नहीं है!
चिपचिपी गोरी त्वचा, दिन-भर, कातर प्रार्थनारत है, धूप के लिए,
सिर्फ मैं ही, इस-दूर पराये देश में,
किसी को भी मनमर्जी को फूंक में उड़ाते हुए,
रिमझिम खिलखिला उठती हूँ।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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