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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान


"अच्छा, तुम जाओ। संभलकर जाना। अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना। अनावश्यक जोखिम मत उठाना।" हनुमान ने प्रणाम किया और वृक्षों के पीछे की ओर निकल गए। कुछ देर सावधानी से चलते रहे; और जब निःशंक हो गए तो गति बढ़ा दी।

उनका मन बल्लियों उछल रहा था : जब वे किष्किंधा पहुंचकर राम को बताएंगे कि सीता कहां हैं और कैसी हैं, उनसे क्या-क्या बातें हुईं, तो राम कितने प्रसन्न होंगे। सौमित्र के मन में कैसा उत्साह जागेगा और संपूर्ण वानर सेना कैसे हुंकार उठेगी।

 उन्होंने आकाश की ओर देखा, उजाला नहीं हुआ था, पर रात का अंतिम प्रहर ही दीखता था। जल्दी सवेरा होगा। अनिद्रा के कारण हनुमान का सिर कैसा भन्ना रहा था। कभी लगता था, सिर घूम रहा है, कभी कुछ पीड़ा का-सा अनुभव होता था, कभी सुन्न ही हो जाता था। आंखें भी कभी बंद हो रही थीं, कभी जल रही थीं और कभी धुंधला रही थीं।

सहसा हनुमान की दृष्टि सामने खड़े कदली-वन पर पड़ी। केले के इतने बड़े-बड़े पेड़ और वे भी फल से लदे हुए। हनुमान को अपनी भूख याद आ गई।...अंतिम बार उन्होंने मय दानव के प्रासाद में, वृद्धा तापसी स्वयंप्रभा द्वारा दिया गया भोजन किया था। उस मायानगरी से निकलकर, सागर तट पर उन लोगों ने संपाति को तो भोजन करवाया था; किन्तु स्वयं कुछ भी नहीं खाया था। सागर में तैरते हुए तो खाने का प्रश्न ही नहीं था। लंका की धरती पर उतरकर भी उनके पेट में कुछ नहीं गया था-पहली रात वे रावण के महामहालय में भटकते रहे थे। कल का सारा दिन कुछ उपवन में सोने और कुछ भटकने में बीत गया। आज की रात भी इस अशोक वृक्ष पर टंगे-टंगे ही निकल गई...अब भूख असह्य थी अब तक अपने कार्य में, वे भूले बैठे थे; किन्तु अब कार्य भी सम्पन्न हो गया था और केले जैसा प्रिय और पका हुआ फल इस प्रचुर मात्रा में सामने लटका हुआ, उन्हें आमंत्रित कर रहा था।...

हनुमान के विवेक ने उन्हें रोका : सावधान हनुमान! कहीं केले खाने के चक्कर में यहीं अटक गए और कोई प्रहरी इधर आ निकला, तो सारा बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा...किन्तु, साथ ही उनकी बुद्धि ने एक दूसरा तर्क उछाल दिया : बिना खाए भी तो काम बिगड़ सकता है। भूख सहन करने की भी तो सीमा होती है। दो दिन और दो रातें बीत रही हैं और उन्होंने कुछ खाया नहीं है। ऐसा न हो कि फिर वही दशा हो जाए, जो स्वयंप्रभा के पास पहुंचने से पहले हो गई थी। फिर हनुमान दीन-हीन होकर किससे भोजन मांगते फिरेंगे? इस समय तो केलों की कादियां सामने लटक रही हैं...न किसी से मांगने की आवश्यकता है न कुछ कहने-सुनने की। निश्चित को छोड़, अनिश्चित की ओर लपकने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है। इस समय केलों से अधिक निश्चित और क्या है? भविष्य तो सारा अनिश्चित है...फिर, अभी तो सारा सागर तैरकर लौटना है। तैरने के लिए भी शरीर में शक्ति चाहिए; और मार्ग में पड़ने वाले उन बेढब जीव-जंतुओं से युद्ध करने के लिए भी। भूखे शरीर से कैसे कुछ हो पाएगा। नहीं, और अधिक भूखे रहने का जोखिम वे नहीं उठा सकते। हनुमान के हाथ अनायास ही बढ़ गए और उन्होंने एक कांदी घसीट ली।

...वृक्ष के बीच कहीं सोए हुए पक्षियों की निद्रा का सुख भंग हो गया और वे चीत्कार करते हुए उड़ गए। हनुमान ने एक बार आश्चर्य से उनको देखा : पक्षी?...भूख और नींद से भन्नाए हुए उनके मस्तिष्क ने भी समझ लिया कि यद्यपि वे इस समय भोजन करने के लिए तत्पर हो रहे हैं और इस समय उनको जगा देना, समय की दृष्टि से उचित नहीं है...किन्तु वे क्या करते। उनकी अपनी स्थिति असाधारण थी। दो दिन और दो रातें बीत गई थीं, उन्होंने कुछ खाया नहीं था। उस उपवन में, जहां उस वाचाल सैनिक ने आकर उन्हें उठाया था, उन्होंने नींद भी कितनी ली थी-वें स्वयं नहीं जानते। अब ऐसे में इन सोये हुए पक्षियों को थोड़ा कष्ट होता भी है, तो हनुमान क्या कर सकते हैं। बहुत होगा, तो ये पक्षी एक वृक्ष से उड़कर, दूसरे वृक्ष पर चले जाएंगे और वहां सो रहेंगे...इन्हें कौन-सी चारपाई उठानी है, या बिस्तर झाड़ना है, जाकर सो ही तो रहना है। वैसे वर्षा ऋतु में, कई बार मेघ आकर खुले आकाश के नीचे सोए हनुमान को भी जगा देते हैं। चारपाई और बिस्तर समेत भी उठना पड़ता है। तब कोई इस प्रकार तो नहीं चिल्लाता जाकर पुनः सो जाता है। तो फिर हनुमान ने शाखा को तनिक-सा हिला दिया तो कौन-सा अनर्थ हो गया...

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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