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राम कथा - अभियान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :178
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 529
आईएसबीएन :81-216-0763-9

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, छठा सोपान

केले बड़े स्वादिष्ट थे और भूख भयंकर हो उठी थी। जब तक ये केले नहीं मिले थे, तब तक बात और थी : कदाचित् भूख भी सोई हुई थी। और जिह्वा को केलों का स्वाद भी स्मरण नहीं था। किन्तु अब खाकर वे समझ रहे थे कि ऐसे केले सामान्य उपवनों में नहीं होते। कदाचित् यह केलों की कोई विशिष्ट जाति थी। किष्किंधा के राजाओं के लिए आरक्षित मधुबन में भी इसी प्रकार के केले होंगे। हनुमान की भूख अगड़ाइया ले-लेकर जागती जा रही थी और पेट भरने के साथ-साथ मस्तिष्क सोता जा रहा था-ऐसे केले राक्षस ही, क्यों खाते रहें...उन्होंने उछलकर वृक्ष के तने पर पाद-प्रहार किया। हों तो इस जाति के केले सब के लिए हों, या फिर किसी के लिए न हों...यह क्या हुआ कि सामान्यजन तो निकृष्ट फल खाएं और राजा लोग उत्तम कोटि के...राजा चाहे किष्किंधा का हो, चाहे लंका का हो...हनुमान ने दो केले और खाए...पर केले ही खाते जाएंगे क्या? कोई और फल भी तो होना चाहिए।...उन्होंने केले के दूसरे वृक्ष को उसके शीर्ष से पकड़कर मोड़ दिया।

बीसियों पक्षी चीत्कार करते हुए एक साथ उड़े और विभिन्न दिशाओं में फैल गए...उन्हें लगा कि दूर कहीं अन्य जंतुओं का भी स्वर जागा है...हनुमान हो हंसी आ गई : केले के एक पेड़ के ध्वंस पर इतना कोलाहल? वानर तो सारी लंका को ध्वस्त करने की सोच रहे हैं...राक्षसों ने क्या कम ध्वंस किया है? जातियों की जातियां और राज्यों के राज्य नष्ट कर दिए। पीढ़ियों की पीढ़ियां पंगु करके रख दीं...जिन राक्षसों के कारण संसार-भर में कोई स्वतंत्रता और सम्मान से जी नहीं सकता-उन राक्षसों को तो ध्वस्त होना ही चाहिए। हनुमान आगे बढ़ गए।

यह किस फल का वृक्ष है। वे निकट गए...नहीं! फलों का वृक्ष नहीं है...यह तो शायद अशोक वृक्ष है...अशोक! अशोक कैसा हुआ, जो शोक नहीं कर सकता...और शोक तो होता है जठराग्नि का। पेट की भूख न मिटा सके तो अशोक कैसा? व्यर्थ का नाम और व्यर्थ का वृक्ष इससे तो अच्छा था, आम का वृक्ष लगाया होता, चलो न सही आम, नारियल का लगाया होता।....व्यर्थ ही अशोक-वशोक लगा दिया...नाम बड़े और दर्शन छोटे...नाम है अशोक; और है पत्तों और लकड़ियों का पुंज। खाने को एक छोटा-सा फल भी नहीं। धत्! इसकी ऐसी की तैसी...

हनुमान जोर से उछले और जिस किसी शाखा पर हाथ पड़ा, उसी को थाम लिया। उनके बोझ से शाखा झुकी और कड़कड़ाई...

सहसा हनुमान सजग हुए...यह क्या कर रहे हैं वे? पक्षियों का चीत्कार अलग। शाखा के टूटने की ध्वनि...ऐसे तो प्रहरी जाग जाएंगे...

उन्होंनें सावधान होकर इधर-उधर देखा।...समझ गए कि विलम्ब हो चुका था...जो भूल होनी थी, हो चुकी थी; और उसका जो दुष्परिणाम होना था, वह भी सामने था। न केवल, सीता हो घेरकर सोई हुई राक्षसियां जाग उठी थीं; वरन् अनेक वृक्षों के पीछे, उन्हें सशस्त्र पुरुष सैनिक भी दिखाई पड़ रहे थे। अब अंधकार भी उतना सघन नहीं रह गया था। यह क्या किया तुमने हनुमान?...वे सोच रहे थे...दो दिन और दो रातें लंका में गुप्त रूप से व्यतीत कर दीं, किसी को कानों-कान सूचना नहीं हुई। सब जगह बचते रहे, छिपते रहे कि कहीं किसी को उनकी गंध न मिल जाए। कहीं उनके लक्ष्य तक पहुंचने में कोई विघ्न न आ जाएं...और अब, कार्य सम्पन्न हो चुका था, लौटना-भर शेष था, यह दुर्घटना हो गई...सचमुच यह भूख बड़ी राक्षसी है...उसी ने तो करवा दिया यह कांड!...पर भूख को क्यों कोसे? उन्होंने चुपचाप पेट भरकर केले खा लिए होते तो यह सब कुछ भी न होता। न करते उत्पात! इस गोपनीय क्षणों में राजाओं के एकाधिकार के विरुद्ध अभियान कर कदली-वन का ध्वंस क्या आवश्यक था? और अशोक वृक्ष को उसकी फलहीनता के अपराध का दण्ड देना...क्या अत्यधिक अनिद्रा के कारण उनका मस्तिष्क सो गया था।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस

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