बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
विकट प्रयास कर उसने अपने मन को शांत किया। अपने आस-पास देखा-मुखर वहां नहीं था। वह आश्रम के मुख्य द्वार की ओर लौट चुका था।...तो उसकी घबराहट किसी ने नहीं देखी थी! किसी को उस पर संदेह नहीं हुआ होगा। वह निश्चित होकर राम तक जा सकता था।
वह अपनी टांगों के कंपन को बड़ी कठिनाई से साधता हुआ, राम की अध्ययन मण्डली तक ले आया। एक नवागंतुक संन्यासी को देखकर राम मौन हो गए। उन्होंने अपने स्थान पर खड़े होकर हाथ जोड़े, "आर्य! मैं आपको नमस्कार करता हूं और अपने आश्रम में आपका स्वागत करता हूं।"
अध्ययन-मण्डली के युवकों ने भी उसी प्रकार नमस्कार किया। मारीच ने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिया, "कल्याण हो! मैं बहुत दूर से अपनी पीड़ा सुनाने आया हूं। सुना है राम के आश्रम से पीड़ित को सदा सहारा मिला है। क़िंतु..." उसने राम के शरीर पर बंधी पट्टियों की ओर संकेत किया, "किंतु आप तो आहत हैं।"
राम मुस्कराए, "निश्चित हो आसन ग्रहण करें, आर्य! इन घावों तथा पट्टियों की चिंता न करें। ये राम के मार्ग में बाधा नहीं बनते। आपकी पीड़ा दूर करने के लिए राम अपनी शक्ति, बुद्धि और कौशल भर कार्य करने का आपको वचन देता है। आप कठिनाई कहें।"
"भद्र राम! अन्यथा न मानना।" मारीच ने संकुचित होने का अभिनय किया, "मैं अपनी बात पूर्ण एकांत में ही कह सकूंगा।" उसने दृष्टि घुमाकर युवकों को देखा, "इससे किसी के प्रति कोई अविश्वास नहीं है, किंतु मेरी बात ही ऐसी है।"
"संकोच न करें, आर्य!" एक युवक बोला, "शंकाओं का समाधान हो चुका है। हम जा रहे हैं। निश्चिंत हो अपनी बात कहें।" उसने हाथ जोड़ दिए, "आर्य राम! हम अपने ग्राम की अध्ययन-मण्डली में इन बातों पर विचार-विमर्श करेंगे, तब अपना कार्यक्रम निश्चित करेंगे। कोई कठिनाई होने पर आपको कष्ट देंगे।"
"अवश्य मित्र!" राम बोले, "वैसे भी सौमित्र तुम्हारे ग्राम जाएंगे ही। मैंने यह कभी नहीं चाहा कि मेरी बात, अथवा किसी की भी कोई बात बिना समुचित विचार-विमर्श के स्वीकार कर ली जाए। यह बहुत अच्छी बात है कि तुम लोगों में परस्पर विचार-विमर्श की प्रवृत्ति है। तुम्हारे गांव की पाठशाला अच्छी प्रकार चल रही है और बच्चों के साथ वयस्क पुरुष और नारियों भी अक्षर-ज्ञान प्राप्त कर अध्ययन की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं-यह मेरे लिए बहुत बड़ा प्रोत्साहन है। जब इच्छा हो, आओ। तुम्हारा स्वागत है।" युवक लक्ष्मण की टोली की ओर बढ़ गए। शस्त्र- प्रशिक्षण भी रुक गया और शस्त्र-प्रशिक्षणार्थी भी अध्ययन-मण्डली के साथ ही आश्रम के मुख्य द्वार की ओर चले गए।
लक्ष्मण उन्हें विदा कर राम और मारीच के पास आ खड़े हुए।
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