बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
चारों ओर सतर्क दृष्टि से देखते हुए मारीच टीले की चढ़ाई चढ़ गया। उसे किसी विशेष सुरक्षा-प्रबंध का आभास नहीं मिला। कदाचित् खर-दूषण की मृत्यु के पश्चात् परस्पर संगठित आश्रमों की असुरक्षा का विशेष भय नहीं था।...मारीच के मन में रावण के प्रति क्रोध जागा। क्यों नहीं वह अपनी सेना के साथ आक्रमण करता और राम-लक्ष्मण का वध कर, सीता को उठा ले जाता? व्यर्थ का एक कीड़ा मस्तिष्क में पाल लिया। एक तर्कहीन-सी योजना बना ली और सुख से बैठे मारीच को उसके आश्रम मंा से उठाकर ला, मृत्यु के मुख में पटक दिया।...किंतु दूसरे ही क्षण उसका क्रोध शांत हो गया। वह अपने मन में बैठे राम के भय को साक्षात देख रहा था और समझ रहा था कि उसी भय के कारण वह चाहता था कि जोखिम का काम रावण करे-और कदाचित् राम के इसी भय के कारण रावण चाहता था कि जोखिम का काम मारीच करे।
आश्रम के फाटक पर ही एक युवक ने टोक दिया, "आप कौन हैं, आर्य? किससे मिलना चाहते हैं?"
मारीच ने गहरी दृष्टि से उस युवक को देखा-वह आश्रम के विद्यार्थी ब्रह्मचारियों के वेश में था, किंतु खड्ग और धनुष-बाण से युक्त था। आकृति से वह आर्य नहीं वानर लगता था। उसके कंधे पर पट्टी बंधी थी, जैसे कोई गहरा घाव लगा हो। अपनी खीझ और कौतूहल को मारीच बड़ी कुशलता से छिपा गया, "तुम कौन हो भद्र? और आश्रमों में यह सशस्त्र प्रहरियों की व्यवस्था कब से हो गयी?"
युवक हंसा, "मैं मुखर हूं आर्य! सशस्त्र प्रहरी नहीं हूं, एक साधारण आश्रमवासी हूं। राक्षसों के उपद्रव के कारण राम ने प्रत्येक ब्रह्मचारी को शस्त्रबद्ध कर रखा है। हमारे शस्त्र अन्याय के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए हैं, किसी के दमन के लिए नहीं। आप शंका न करें। अपना परिचय दें।"
"भद्र! मैं राम से मिलने आया हूं।" मारीच ने अत्यन्त दीन होने का अभिनय किया, "पीड़ित हूं, और राम से सहायता मांगने आया हूं। इससे अधिक परिचय क्या दूं।"
"आएं, आर्य।" मुखर ने और कुछ न पूछा, "राम के आश्रम के द्वार प्रत्येक पीड़ित के र्लिए सदा खुले हैं।"
मारीच मुखर के पीछे-पीछे चल पड़ा। उसने समझ लिया था-यद्यपि प्रत्येक आश्रमवासी के शस्त्रबद्ध होने की बात मुखर ने कही थी, किंतु प्रहरी व्यवस्था नहीं थी, अन्यथा मुखर फाटक से हटकर उसके साथ न चला आता। आश्रम की सीमा से कुलपति तक किसी ब्रह्मचारी द्वारा मार्गदर्शन आश्रमों की साधारण व्यवस्था थी। दूर से ही कुछ लोगों में घिरे बैठे राम को मारीच ने पहचान लिया। आश्रम में बैठी एक मण्डली में हो रही चर्चा का यह एक सामान्य दृश्य था। इसमें कुछ भी असाधारण नहीं था...किंतु दूसरी दिशा में दृष्टि पड़ते ही मारीच सन्न रह गया-वहां लक्ष्मण कुछ युवकों तथा युवतियों को बाण-संधान का अभ्यास करा रहे थे। धनुर्धारी लक्ष्मण को देखते ही मारीच को देश-काल का बोध विस्मृत हो गया। उसे लगा, जैसे वह सिद्धाश्रम में खड़ा है और सम्मुख धनुष ताने लक्ष्मण खड़े हैं-यद्यपि तब के बालक लक्ष्मण अब युवक हो चुके थे...अभी राम भी उठेंगे और उस पर मानवास्त्र का प्रहार करेंगे। उसके रक्त-बिंदुओं में वह पीड़ा फिर से जाग उठी, जो मानवास्त्र से उत्पन्न हुई थी। और फिर वह घायल अवस्था में भूखा-प्यासा, थका-हारा भागता ही चला जाएगा। कदाचित् इस बार भागकर सागट-तट पर भी उसे शांति नहीं मिलेगी।
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