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राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

"यह मेरे छोटे भाई हैं-सौमित्र!" राम ने कहा, "और ये नवागंतुक संन्यासी हैं, सौमित्र! किसी दूरस्थ स्थान से अपनी कठिनाई में सहायता लेने आए हैं।" राम ने आसन की ओर संकेत किया, "बैठे, आर्य!"

मारीच ने फिर संकुचित होने का अभिनय किया, "क्षमा करना, राम! अपने एक संकल्प के कारण मैं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गए आसन पर नहीं बैठता। अपना आसन साथ लिए चलता हूं। इसमें किसी की अवमानना नहीं है, यह मेरा अपना संकल्प है।"

"कोई बात नही, आर्य! आप अपने आसन पर ही बैठें।"

मारीच ने अपनी गठरी टटोली और उसमें से एक मृगछाल निकाली।

राम और लक्ष्मण दोनों की दृष्टि मृग-चर्म पर जम गयी। यह असाधारण मृग-चर्म था। स्वर्णिम मृग-चर्म। सोने की पृष्ठभूमि पर जैसे गहरे नीले रंग के नीलम जड़े हुए हों। यह मृग-चर्म नहीं हो सकता। यह तो धातु को गलाकर किसी दक्ष कारीगर द्वारा उसमें नीलम जड़े हुए थे। ऐसा मृग तो उन्होने कभी नहीं देखा। यह मृग-चर्म नहीं है। किंतु मारीच बड़े सहज भाव से उसे साधारण मृग-चर्म के समान झाड़कर, भूमि पर बिछाकर उस पर बैठ गया। राम और लक्ष्मण उसके सम्मुख अपने आसनों पर बैठ गए। मारीच ने अपने संपूर्ण अभिनय-कौशल का आह्वान कर, अत्यन्त पीड़ित मुद्रा बनायी, "भद्र राम! सुदूर दक्षिण में समुद्र-तट पर मेरा आश्रम है। कभी-कभी जब समुद्र में जोर का ज्वार आता है, सागर की लहरें मेरे आश्रम का आंगन भी धो जाती हैं..."

तभी कुटिया से सीता बाहर आयी। उन्हें बाहर किसी अतिथि के आने की सूचना नहीं थी। एक अपरिचित व्यक्ति को देख चकित हुई, और फिर उनकी दृष्टि उस अतिथि के आसन-रूप में बिछे मृग-चर्म पर पड़ी। सीता की आंखें विकट आश्चर्य से फैल गयीं-ऐसा मृग-चर्म...।

मारीच ने भी दृष्टि उठाकर सीता को देखा-यह है वैदेही! रावण इसका हरण करना चाहता है। अद्भुत था सीता का रूप। रावण ने सीता को अभी तक देखा नहीं था, शूर्पाणखा से केवल उसका नान भर सुना था। उसने यदि एक बार सीता को देख लिया, तो उसे प्राप्त करने के लिए लंका की समस्त राक्षसी सेना को कटवा देने में भी संकोच नहीं करेगा...।

"यह मेरी पत्नी हैं...सीता।" राम ने परिचय दिया, "और यह सुदूर दक्षिण से आए एक अतिथि संन्यासी..."

मारीच ने अपनी बात आगे बढ़ाई, "मैं अत्यन्त सुख-शांति से उस आश्रम में रह रहा था। कुछ अपनी साधना करता था, कुछ ब्रह्मचारियों को शिक्षा देता था; और जो हो सकता था, जन-कल्याण का प्रयत्न करता था। किंतु राम, मेरे आश्रम से कुछ दूरी पर राक्षसों का एक पत्तन है। उनके जलपोतों तथा नौकाओं का आवागमन वहां लगा ही रहता है। एक दिन उस पत्तन से कुछ राक्षस मेरे आश्रम पर आए। उन लोगों ने मुझे बताया कि वे रावण की जल-सेना के अधिकारी हैं। उन्हें अपनी नौकाओं और जलपोतों को चलाने के लिए दासों की आवश्यकता है। अतः वे लोग रावण की आज्ञा से मेरे आश्रम के ब्रह्मचारियों को पकड़ कर ले गए।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

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