बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
"सुरक्षा, उत्पादन तथा शिक्षा के लिए केंद्रीय समितिया बन गयी हैं। अब ये लोग प्रत्येक ग्राम-बस्ती, पुरवे-टोले में वैसी ही समितियां स्थापित करेंगे। तरुण टोली, शिशु टोली, महिला संघ इत्यादि संस्थाएं बन गयी हैं। ग्राम-पंचायतों की स्थापना कर दी है। भूमि-वितरण की व्यवस्था हो गयी है। कृषि के इच्छुक व्यक्ति को उसकी आवश्यकतानुसार भूमि मिलेगी। प्रथम वर्ष के लिए किसी से कोई कर नहीं लिया जाएगा। ग्राम-पंचायतों तथा अन्य संस्थाओं द्वारा छोड़े गए धन से चलेगा।"
"बहुत कुछ कर आए।" राम बोले, "पर अभी बहुत कुछ शेष है। कृषि के लिए अच्छे बीजों और अच्छे पशुओं की व्यवस्था करनी होगी। राक्षसों द्वारा प्रचारित यह व्यापक मदिरापान की लत छुड़ानी होगी। दासता की प्रथा, वेश्यावृत्ति, बहुपतित्व तथा बहुपत्नीत्व इत्यादि के विरुद्ध भी अभियान चलाना होगा।"
"मैंने चर्चा की थी।" लक्ष्मण बोले, "आदित्य, उल्लास, मणि इत्यादि बहुत उल्लास से इस दिशा में काम करना चाह रहे हैं। मणि की एक सखी है वज्रा। वह शूर्पणखा की प्रसाधिका थी। एक कापालिका नाम की भी महिला है। ये तथा इनकी सखियां, इनके परिवार, सर ही परिवर्तन के लिए कार्य को आतुर थे।"
"फिर तो विशेष कठिनाई नहीं होगी।" सीता बोली।
"आर्य जटायु ने सैनिक प्रशिक्षण के लिए नवयुवक भी चुन लिए हैं। वे अपने घावों के बावजूद काम आरंभ कर रहे हैं।"
''उनको समझाना पड़ेगा।'' सीता चिंतित स्वर में बोली, ''इस वय में घावों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।''
''मेरे घाव की तो चर्चा नहीं हो रही, दीदी?'' मुखर भी आ गया।
''चर्चा तो तुम्हारे घाव की भी थी।'' सीता बोलीं, ''पर तुम थे कहां? संध्या समय पट्टी करवाने भी नहीं आए!''
''अपने अतिथियों को विदा कर रहा था।'' मुखर बोला, ''अब स्थिति यह है कि दूसरे आश्रमों अथवा ग्रामों से आए हुए सभी जन-सैनिक, नायक, ऋषि-मुनि, अतिथि-अभ्यागत सब विदा हो चुके हैं। इस समय आश्रम में केवल आश्रमवासी ही हैं।''
''किंतु अंतिम अभ्यागत तो दोपहर को ही विदा हो गए थे।'' सीता बोली।
''यहां से तो विदा हो गए थे, किंतु आश्रम से तो वे अब विदा हुए हैं।'' मुखर हंसा।
''इस युद्ध के पश्चात् जितना प्रसन्न मुखर दिखाई पड़ता है, उतना प्रसन्न और कोई नहीं है।''
सीता बोली, ''इतना विकट घाव खाकर भी।''
''मैं आपको बता नहीं सकता, दीदी! कि मैं कैसा और कितना प्रसन्न हूं। मेरे भीतर का घृणा का सारा विष इस युद्ध ने निकाल दिया है। मेरी आत्मा जैसे विशद हो गयी है। मेरा जीवन सार्थक हो गया है। मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया है। अब अपना जीवन मेरे लिए एक सुंदर पुष्प है, जिसे निर्माण की वेदी पर धीरे से रख देना चाहता हूं...''
''युद्ध के पश्चात उदास तो मैं हूं।'' लक्ष्मण धीरे से बोले, ''जिसके शस्त्र चलाए बिना ही युद्ध समाप्त भी हो गया।''
''तुम्हारी पीड़ा मैं समझता हूं।'' राम बोले, ''किंतु कभी-कभी ऐसे पीड़ापूर्ण दायित्व भी स्वीकार करने पड़ते हैं।''
''बार-बार ऐसा कष्ट न ही दें, भैया!'' लक्ष्मण कुछ गंभीरता और कुछ परिहास में बोले।
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