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राजा होने की मुसीबत

विमल मित्र

प्रकाशक : राजभाषा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5746
आईएसबीएन :81-8114-025-7

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प्रस्तुत है रोचक उपन्यास.....

Raja hone ki musibat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजा होने की मुसीबत
1


मनुष्य से जैसे महामनुष्य बड़ा होता है, वैसे ही राजा से बड़ा होता है महाराजा। दुनिया में आजकल राजा-महाराजा का जमाना खत्म हो चुका है। आजकल महत् मनुष्य को ही लोग महाराजा का सम्मान देते हैं। जो आदमी महत् कार्य करता है, वही लोगों से सबसे ज्यादा श्रद्धा पाता है।
फिर भी मैं जो राजा महाराजा की कहानी कहने जा रहा हूं, उसका कारण और कुछ नहीं, सिर्फ यह है कि इतिहास से भी हमारे लिए बहुतेरी चीजें सीखने की हैं। आज की निगाहों से बीते दिनों को देख देश की वर्तमान अवस्था की विचार विश्लेषण व्याख्या जिस पुस्तक में लिखी होती है, उसी का नाम है इतिहास।

यह भी वैसे ही एक जमाने की बात है, जब दुनिया के सभी देशों में राजे महाराजे थे, रानियां, महारानियां, मंत्री सेनापति सभी थे। राजा-महाराजाओं के पास जो-जो होना चाहिए, वह सब कुछ था। घुड़सवार में घोड़े थे, हथसार में हाथी, ऊंटसार में ऊंट, चिड़ियाखाने में चिड़िया-सेना, सामंत परिषद वय, रूप-कुछ भी बाकी न था।
देश का नाम था बंबागढ़। बंबागढ़ खासा बड़ा राज्य था। बंबागढ़ के चारों ओर समुद्र था। दुश्मनों के हमले का खतरा नहीं था। राज्य की प्रजा भी बड़ी सुख-शान्ति से संसार धर्म का पालन करती थी।
राजा ने यह नियम बना दिया था। कि उनके राज्य में कोई प्रजा अनाहार से नहीं मरेगी। किसी को आहार न मिले तो राजा के यहां अर्जी दाखिल करेगा। राजा अगर देखेंगे कि उसको सहायता मिलनी चाहिए, तो राजभंडार से उसे खाद्य सामग्री दी जाया करेगी।

आज यह सब सुनने में रूपकथा जैसा लगेगा, लेकिन बंबागढ़ के राजा का ऐसा ही नियम था। बंबागढ़ दुनिया में स्वर्ग के राज्य जैसा था।
बंबागढ़ के राजा का नाम था कंदर्पनारायण।
कंदर्पनारायण महज राजा ही नहीं थे, गरीब और दीन प्रजा के बंधु भी थे। कंदर्पनारायण के राजकोष में कितनी मुहरें, कितनी मणियां, कितने रत्न, कितने माणिक, कितना हीरा-जवाहरात था, यह खुद वह भी नहीं जानते थे, राजकोष के भीतर, जहां वह सब मणि मुक्ता, हीरा-जवाहर सोना-दाना रहता था, यदि कभी स्वयं राजा ही घुसना चाहते, तो उन्हें आंखों पर पट्टी बांधकर घुसना पड़ता था। उसके पास कितना धनरत्न है, यह देखने का अधिकार भी उन्हें नहीं था उस राज कोष के दरवाजे पर जो पहरा देते थे, वे पुश्त दर पुश्त पहरा देते आये थे। वे बड़े सच्चे और विश्वासी थे। राजकोष का भार उन्हीं पर देकर राजा कंदर्पनारायण निश्चिंत रहते थे। किसी भी बात की कोई चिन्ता नहीं थी उन्हें, राज्य में कहीं अशान्ति भी नहीं थी।

कंदर्पनारायण के दो लड़के थे। बड़े का नाम कीर्तिनारायण था, छोटे का कांतिनारायण। राजपंडित से विद्या सीखकर दोनों लड़के लायक हुए। जितना सुन्दर चेहरा था उनका, उतना ही सुशील स्वभाव। प्रजा से भले भाव से मिलते-जुलते, उनके साथ भला व्यवहार करते। उनके मीठे व्यवहार से राज्य के मित्र, अमात्य, सेनापति, मंत्री, दीवान, राजपुरोहित, सभी खुश रहते। दोनों भाइयों में मेल भी खूब था। वे विनयी, विद्वान, श्रद्धाशील, संयत, और ब्राह्म देवता के प्रति भक्तिमान थे।
उसी बंबागढ़ के राजा कंदर्पनारायण ने एक दिन मंत्री, सेनापति, दीनवान, मित्र, अमात्य, राजपुरोहित सबको बुलाया। सभी राजदरबार में इकट्ठे हुए। राजा के दोनों बेटे कीर्तिनारायण और कांतिनारायण भी राजा के दोनों ओर बैठे।
राजा कंदर्पनारायण ने सबको सम्बोधित करके कहा, ‘देखिए, आज एक शुभ घोषणा के लिए ही आप सबको यहां बुलाया गया है। मैं अब बूढ़ा हो गया। अब मेरे अवकाश ग्रहण करने का समय आ गया।’

जो भी वहां उपस्थिति थे, यह संवाद उनमें से किसी को शुभ नहीं लगा। राजपुरोहित दाहकेश्वर शास्त्री बीच में बोले, जी नहीं महाराज, आप शतायु होकर राज करें, हम यही चाहते हैं। इतनी जल्दी अवकाश ग्रहण करने की बात आप क्यों सोच रहे हैं ? मैंने आपकी कुण्डली देखी है, अगले बीस साल तक आप पर किसी भी प्रकार की विपत्ति नहीं आने की। और फिर बंबागढ़ सम्पन्न राज्य है, यहां की प्रजा आपकी बड़ी अनुगत है। यह चारों ओर से समुद्र से घिरा है, राज्य पर बाहरी शत्रु के आक्रमण की भी आशंका नहीं। और सबसे बड़ी बात है, हमारे निकट का देश है जंबू द्वीप। वहां के राजा दशवाहुवीर हमसे बंधुता रखते हैं। अभी आपके अवकाश ग्रहण का सवाल ही नहीं।’
दरबार में उपस्थित अन्य लोगों ने भी राजपुरोहित की बात का समर्थन किया। सबने कहा, ‘जी महाराज, हम सब भी राजपुरोहित से एक मत हैं।’

राजा कंदर्पनारायण ने सबकी ही राय सुनी। फिर भी वह अपने निर्णय पर अडिग रहे। बोले, आप सबको शुभ कामना के लिए धन्यवाद। फिर भी मैं कहूंगा, बहुत सोच-विचार कर ही मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं। मेरा यह निर्णय अब डिगने का नहीं। मैं मानता हूं कि शारीरिक और मानसिक शक्ति के रहते-रहते ही सबको अवकाश ग्रहण करके ईश्वर की चिन्ता में घुटने टेककर प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसी में मनुष्य का कल्याण है। मैंने सोच लिया है, सिंहासन त्यागकर मैं अपने राजवंश की प्रथा के अनुसार वानप्रस्थ लूंगा। यानी यह राजमहल छोड़कर मैं जंगल में जाकर निरासक्त होकर जीवन के बाकी दिन बिताऊंगा।’’

फिर जरा रुककर बोले, ‘और मैंने यह तय किया है कि मेरी गद्दी पर मेरे दोनों बेटे कीर्तिनारायण और कांतिनारायण बैंठेंगे। इन दोनों ने उपर्युक्त शिक्षा पाई है। मैंने तरह-तरह से इन्हें परखा है। ये विद्या, विनय न्याय, विचार, व्यक्तित्व हर बात में मेरे योग्य उत्तराधिकारी होंगे, ऐसा मेरा ख्याल है। आप लोगों की क्या राय है ?’’

राजपुरोहित, मंत्री, सेनापति, मित्र अमात्य, वयस्य सभी अवाक् रह गये। कुछ देर तक किसी के मुंह से कोई बात ही नहीं निकली। एक सिंहासन के दो अधिकारी हो कैसे सकते हैं ? बंबागढ़ में नियम के मुताबिक बड़ा लड़का ही सदा सिंहासन का अधिकारी होता आया है। दूसरे या तीसरे लड़के का गद्दी पर कोई अधिकार नहीं होता। केवल बंबागढ़ में ही क्यों, तमाम दुनिया में यही नियम है। एक सिंहासन पर दो राजा बैठेंगे, कैसे ? राजपुरोहित, मंत्री, सेनापति, मित्र ये किसका हुक्म बजायेंगे ? महाराज कहकर सम्बोधन किसे करेंगे ? यदि ऐसा हुआ तो दोनों राजाओं में होड़ होगी, टंटा होगा, और यह बंबागढ़ जहन्नुम में जायेगा। उन सबके होते ऐसा अन्याय होने देना उचित नहीं। उन सबकी इच्छा थी कि जन्मसूत्र से प्रथम राजपुत्र कीर्तिनारायण ही गद्दी पर बैठे और दूसरे राजकुमार कांतिनारायण, जैसा कि नियम है, विशेष भत्ता राजकोष का एकांश और विशेष सम्मान तथा मर्यादा के अधिकारी हों।

सबने यही एक राय दी। राजपुरोहित दाहकेश्वर शास्त्री ने भी शास्त्र से श्लोक का प्रमाण देकर महाराज के सामने यही युक्ति रखी।
महाराज कंदर्पनारायण ने किसी की भी नहीं सुनी। बोले, ‘आप लोगों की युक्ति मैंने सुनी। आपने जो कहा, यही सदा का नियम है।
यही नियम आज तक मेरे राज्य में चलता रहा है। लेकिन आज से मैं इस नियम को बदलूंगा। मैं इस राज्य में एक नया कानून चलाऊंगा। मैं अपने पिता का इकलौता था, इसीलिए मेरे समय में यह समस्या नहीं उठी, इस राजवंश के पुरखों के भी सबके एक ही पुत्र हुआ।

इसीलिए उनके समय में भी यह सवाल नहीं उठा। किन्तु सौभाग्य से कहिए या दुर्भाग्य से, मेरे दो पुत्र हैं। कीर्तिनारायण और कांतिनारायण-दोनों ही मुझे समान प्रिय हैं। दोनों ही एक से विद्वान, विनयी और पारदर्शी हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि कीर्तिनारायण, कांतिनारायण से उम्र में एक साल बड़ा है। तो क्या केवल उम्र में बड़ा होने के ही अधिकार से कीर्तिनारायण राजा होगा और उम्र में साल भर छोटा होने के अपराध से कांतिनारायण वह अधिकार खो बैठेगा ? जिस दैव पर उनका कोई हाथ नहीं था, उसी दैव के कारण एक सम्मानित होगा और दूसरा उस सम्मान से वंचित होगा यही क्या सुविचार है ? आप लोग इसे ही क्या न्याय कहेंगे ? शास्त्र में चाहे जो भी लिखा हो-जिस युग में शास्त्र लिखा गया था, वह युग बदल गया, इसलिए नये सिरे से युग के अनुकूल शास्त्र लिखा जाना चाहिए।’’
राजपुरोहित दाहकेश्वर शास्त्री ने पूछा, ‘तो क्या दोनों ही राजकुमार सिंहासन पर बैठेंगे ? यही आपका निर्देश है ? यही क्या आपका विधान है ? तो एक ही साथ दोनों का राज्याभिषेक होगा ?’

महाराज कंदर्पनारायण ने कहा, ‘‘हां, यही मेरा निर्देश, यही मेरा विधान है।’
केवल मंत्री भूपप्रतापसिंह ने साहस करके पूछा, किन्तु एक सिंहासन पर दो राजा तो बैठ नहीं सकेंगे महाराज, तो क्या दूसरा सिंहासन तैयार करने का हुक्म दूं ?’
महाराज ने कहा, नहीं।’
मंत्री ने कहा-‘‘महाराज का सिंहासन तो एक ही जने के बैठने योग्य बना था। उसमें तो दो की बैठने की जगह नहीं है। उसमें दो को बैठने में तो कष्ट होगा महाराज...’
महाराज ने पूछा, ‘मैंने उसकी भी व्यवस्था की है। आपको समझाकर कहूं। मेरा पचास वर्ष पूरा हो गया। सच पूछिए तो इसी उम्र में पिता-पितामह, प्रपितामह, वृद्ध प्रपितामह सभी वानप्रस्थ में गये। मेरे वानप्रस्थ में जाने पर राजसिंहासन को तो खाली नहीं रखा जा सकता। इसलिए मैंने सोचा है-उस समय मेरे सिंहासन पर मेरा यह मणि रत्न जड़ा मुकुट बैठेगा।’
भूपप्रतापसिंह अवाक् हो गये। बोले, ‘यह क्या महाराज ?’

महाराजा ने कहा, ‘हां। मेरे दो राजकुमारों के बदले मेरे इस मणि रत्न जड़े मुकुट का ही अभिषेक होगा। आप मेरे राज्य के विलक्षण और विश्वस्त मंत्री हैं, मेरे इस मुकुट के बाकलम से आप ही राज्यशासन और प्रजापालन करेंगे। आप पर यह दोनों भार देकर मैं निश्चित होकर वानप्रस्थ में जा सकूंगा।’
राजा का यह अजीब निर्णय सुनकर दरबार के सारे लोग दंग रह गये। भूपप्रतापसिंह ने पूछा, ‘‘तो राजकुमारों का क्या होगा ?’
महाराज ने कहा, ‘उन्हीं लोगों के बारे में बताने के लिए तो आप लोगों को बुलाया है। वे दोनों जब तक मेरी एक शर्त पूरी नहीं करते, तब तक मेरे होकर आप ही राज-काज चलाते रहेंगे।’
‘कौन-सा शर्त ?’



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