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सोती आग, डूबता शंखनाद

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5814
आईएसबीएन :8173151342

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सन् 1730 के आसपास दिल्ली की घटनाओं पर आधारित उपन्यास...

Soti Aag

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिल्ली के लिए हिंदू-मुसलमान दंगे कोई नई बात नहीं, फिर भी ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब हिंदू-मुसलमान ने अपनी जान देकर भी दूसरे की जान बचाई। ऐसी ही इतिहास-प्रसिद्ध घटना को वर्माजी ने इस उपन्यास में प्रस्तुत किया है।

परिचय

दिल्ली के जिस दंगे का वर्णन यहाँ किया गया है वह ऐतिहासिक घटना है। यहाँ निकट दंगा सन् 1729 ई. में हुआ था। उपन्यास में उसका ब्योरा भी इतिहास से लिया गया है। कुम्हार की मिट्टी के बर्तनोंवाली झोंपड़ी पर अमीर आजमखाँ का जुमा मसजिद से कूदना और कुम्हार के द्वारा पीटा जाना इत्यादि घटनाएं सच्ची हैं। गुलाबखाँ, बेगम शबनम और रानी देवकी के नाम कल्पित हैं, परंतु घटनाएँ वास्तविक हैं। अन्य पात्रों के नाम इतिहास से ज्यों-के–त्यों लिये गए हैं। शुभकर्ण की हवेली को तोड़कर उसके खंडहर पर हाजी हाफिज खाँ की लाश का दफनाया जाना और वहीं उतनी जल्दी मसजिद का खड़ा कर दिया जाना, अमीर शेर अफगन का शुभकर्ण को शरण देकर विकट साहसपूर्ण आत्मात्याग का प्रदर्शन, कोकीजू की हरकतें और उस काल की राजनीति पर इस महिला का प्रभाव इत्यादि तथ्य इतिहास से लिए गये हैं। विलियम इरविन ने ‘History of the later Moguls’ (उत्तर-कालीन मुगलों का इतिहास) बहुत परिश्रम और सतर्कता के साथ लिखा था। पुरानी हस्तलिखित फारसी की ऐतिहासिक पोथियाँ इरविन ने बड़ी कठिनाइयों का सामना करके हस्तगत कीं और इनके आधार पर अपनी पुस्तक लिखी। फारसी के उन ग्रंथों में दंगे का पूरा विवरण है।

इरविन का देहान्त सन् 1911 में हुआ। अपनी पुस्तक की एक टिप्पणी में इरविन ने लिखा है-
‘....दिल्ली के पिछले बादशाहों पर इतिहास लिखे जाएँगे। यदि उन ग्रंथों की टिप्पणी ही में मुझे याद कर लिया जाएगा तो बहुत है।’
एक और स्थान पर इराविन ने कहा है, -‘यदि कभी कोई सामग्री का उपयोग करके मेरे स्मरण में एक शब्द भी कह देगा तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगा।’

मैं इरविन के प्रति बहुत आभारी हूँ। इरविन ने अपना सारा सचेत जीवन पिछले मुगल बादशाहों के शासन का इतिहास प्रस्तुत करने में लगाया। सर यदुनाथ सरकार भी हमारी कृतज्ञता के पात्र हैं, जिन्होंने इरविन के देहांत के उपरांत बड़े विवेक और परिश्रम के साथ इरविन की इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का संपादन किया।

मानव की अंतर्निहित हिंसा जरा-सी रगड़ खाने पर कितनी अनियंत्रित हो जाती है और राजनैतिक दलबंदी की भँवर में पकड़कर कितनी प्रचंड और नृशंस ! वह सब दिल्ली के 1729 वाले भीषण दंगे से प्रकट है। दबी चिनगारी को फूँककर लोग जिस आग को प्रज्जवलित करते हैं वह दावानल का भयानक रूप पकड़ती है, ऐसा कि फिर उनके ही बस की नहीं रहती। उस भयानक धाँय-धाँय साँय-साँय में भी गुलाबखाँ और शेर अफगन सरीखे व्यक्तियों का त्याग और शौर्य इस बात की याद दिलाते हैं कि मानव की मानवियता और संस्कृति आग की भीषण लपटों तक की उपेक्षा करके ऊपर आती है और आती रहेगी।


झाँसी, 11-4-1966

-वृंदावनलाल वर्मा


सोती आग
1



चौक सादुल्लाखाँ दिल्ली की सबसे बड़ी जगह थी। तब उसके बीचोबीच एक नहर भी बहती थी। उसके दोनों ओर हरे-भरे सघन पेड़ थे। चौके से पिछवाड़ों की गलियाँ और गलियों से कूचे गए थे।

बाजार में चहल-पहल थी। दूकानों पर शमादानों की रोशनी। परंतु गलियों और कूचों में न उतना उजाला था और न उतनी खरभर। मकानों की पौरों में दीये टिमटिमा रहे थे और खिड़कियों में से प्रकाश की पर्त झाईं मार जाती थी। एक गली में सन्नाटा-सा छाया हुआ था। अँधेरी रात और उस सन्नाटे को चीरती हुई-सी एक बड़ी डोली अमीर आजमखाँवाली गली में पहुँची। इस स्थान पर अवश्य प्रकाश काफी था और गुलगपाड़ा भी। हवेली शमादान जल रहे थे और बाहर मशालें।

पहरेदारों की संख्या भी बहुत थी। यह हवेली आजमखाँ की थी-दिल्ली दरबार के एक सरदार आजमखाँ की। डोली के पहुँचते ही हवेली के लोग चौकन्ने हुए। पहरेदार सचेत होकर नतमस्तक हो गए। शमादानों में तेल डालने पर कुछ लोग जुट पड़े। हवेली के फाटक के भीतर डोली चली गई। चारों तरफ से सलामें नजर की गईं। हवेली के एक भीतरी भाग में डोली को आदरपूर्वक पहुँचाया गया। डोली में से एक बुर्कानशीन महिला उतरी। आजमखाँ तुरंत सामने आया। बहुत मोटा था। उसने झुक-झुककर हाँफ-हाँफकर सलाम किया। चेहरे पर नम्रता के पसार में से मन की कोई दबी मसोस झाँक रही थी। स्त्री ने उत्तर में शान के साथ जरा-सा सिर हिलाया और अंतः पुर में दाखिल हो गई।

अमीर आजमखाँ की बेगम उतरती अवस्था की गृह स्वामिनी थी। जरा पीछे उसकी लड़की आ खड़ी हुई। होगी लगभग सोलह-सत्तरह वर्ष की ! गोरा रंग, सुंदर बड़ी आँखों में मद। मद के साथ महत्त्वाकांक्षा घुली-मिली। उन दोनों ने उस महिला की आवभगत की। बुर्कावाली ने परदा उघाड़कर अलग रख दिया। आयु उसकी तीस वर्ष से कुछ ऊपर थी, परंतु लगती वह बीस-बाईस की थी। मोहक सलोनापन। आँखें चपल। बुद्धि की कुशाग्रता, निश्चय की दृढ़ता मानो इनसे झर रही हो। होठों का पतला संपुट, दृढ़ ठोड़ी के ऊपर सवेग निर्णय था, तुरंत संकेत देनेवाला।

लड़की जान मुहम्मद रम्माल-भविष्यवक्ता-की, लाड़ली दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह की, नाम रहीमुन्निसा, कोकीजू कहलाती थी। मसनद लगे तख्त पर बिठला दी गई। माँ-बेटी खड़ी रहीं। थोड़े-से शिष्टाचार के उपरांत बात चली। कोयल के स्वर में कोकीजू ने अमीर की बेगम से कहा -‘अम्मीं, शबनम की शादी एक बहुत बड़े ठिकाने पर तय करके आ रही हूँ।’

शबनम आजमखाँ की लड़की का नाम था। आड़ लेकर हट गई। मुँह फेर लिया कान खड़े कर लिये।
बुढ़िया की भावनाएँ उम्र के साथ ढलती जा रही थीं। उसने थोड़े-से उत्साह और बड़ी विनय के स्वर में पूछा-‘कहाँ सरकार ?’
कोकीजू ने उत्तर दिया, ‘जरा लंबी कहानी है, अम्मीं। पहले बाबाजान से रमल फिंकवाया। उन्होंने बहुत ध्यान लगाकर हुक्म दिया कि गुलाबखाँ के साथ शादी करने में सारी जिंदगी आफतों का सामना करना पड़ेगा, शबनम के दिन-रात मुसीबत में गुजरेंगे। उन्होंने सोच-विचारकर अमीर रौशनुद्दौला के लिए फरमाया है। आप जानती हैं कि अमीर रौशनुद्दौला का बहुत दौरदौरा है। चौदह-पन्द्रह हजार सिपाही उनकी माकहती में हैं और करोड़ों की धन-संपदा घर में।
उनकी रिश्तेदारियाँ भी बहुत जबरदस्त हैं। बादशाह सलामत बहुत मानते हैं। उनके हुजूर में भी अर्ज की थी। बड़े खुश हुए। आपकी और अमीर साहब की हामी मिलते ही अमीर रौशनुद्दौला के यहाँ ब्याह की तैयारी कल से ही शुरू हो जाएगी। यह सब तय करके मैं आज इसी काम के लिए यहाँ आई हूँ।’

बुढ़िया ने बड़े अदब के साथ निवेदन किया-‘मगर गुलाबखाँ के लिए वचन दे दिया है। हवेली के एक हिस्से में उसे रख भी लिया है। और, वह शबनम का नाते में दूर का मौसेरा भाई भी होता है। रौशनुद्दौला की शादी हो चुकी है और उनके साथ पिछले दिनों बहुत निभी नहीं है। फिर आपका जैसा हुक्म हो।’

कोकीजू ने अपने पतले होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा- ‘शादी हो जाने से क्या होता है ? होती ही रहती हैं। हमारी हसीन शबनम जब रौशनुद्दौला की हवेली में जाएगी, जगमगाहट भर देगी और अमीर सदा के लिए इसका गुलाम बन जाएगा। आजकल के जमाने में बड़े नातेदारों को पल्ले में रखना एक बड़ा ही जरूरी पहलू है। अगर दिलों में कुछ अनबन रही है तो अब दूर हो जाएगी।’
शबनम एक कोने में जा बैठी थी। बुढ़िया सोचने लगी।

कोकीजू उठी और उसने बुढ़िया का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठला लिया। बुढ़िया प्रतिवाद न कर सकी। बोली -‘आपका और बादशाह सलामत का हुक्म नहीं टाला जा सकता। मुझे इनकार नहीं हैं। जरा उनसे भी सलाह करनी होगी।’

बुढ़िया कमरे के बाहर चली गई।
कोकीजू ने शबनम को अपने पास बुलाकर गले लगा लिया।
‘शबनम, तू उस बाग के फूलों का जौहर बनेगी, उस समुद्र का दमकता मोती !’-कोकीजू ने कहा-‘देख, वहाँ पहुंचकर हमें भूल न जाना।’
शबनम हँसकर भागने को हुई। कोकीजू ने पकड़ लिया।’ बोल शबनम, उस घर में घुसने से हमें रोकेगी तो नहीं ?’
‘अरे, हुजूर, यह क्या कह रही हैं ?

‘तो फिर हाँ कर दे।’
‘मैं क्या कह सकती हूँ ?’ शबनम लजा रही थी। पर उसकी आँखें या बोली में नाहीं नहीं थी।
कोकीजू ने समझ लिया कि शबनम को इस विवाह-संबंध से इनकार नहीं है। उसके कहा-‘सुना ही होगा- वह बहुत बड़े अमीर हैं और वाह ! क्या तबीयत पाई है ! सुख में तैरती रहोगी। उनकी पलकों पर रहोगी।’

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