विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
अत्यन्त कठिन कार्य
योगियों के मत से मुख्यतः तीन नाड़ियाँ हैं। 'इड़ा', 'पिंगला' और बीच में 'सुषुम्ना', और यह तीनों मेरुदंड में स्थित हैं। इड़ा और पिंगला दाहिनी और बाई, नाड़ी तंतुओं के गुच्छ हैं। पर सुषुम्ना उनका गुच्छ नहीं है, वह पोली है। सुषुम्ना बन्द रहती है और साधारण मनुष्य के लिए इसका कोई उपयोग नहीं होता। वह इड़ा और पिंगला से ही अपना काम लिया करता है। इन्हीं नाड़ियों द्वारा संवेदना का प्रवाह लगातार आता-जाता रहता है और वे सम्पूर्ण शरीर में फैले हुए नाड़ीय सूत्रों द्वारा शरीर की पृथक् पृथक् इन्द्रियों तक आदेश पहुँचाती रहती हैं। (३.११६)
हमारे सामने बहुत बड़ा कार्य है, और इसमें सर्वप्रथम और सबसे महत्त्व का काम है, अपने सहस्रों सुप्त संस्कारों पर नियन्त्रण करना, जो अनैच्छिक सहज क्रियाओं में परिणत हो गये हैं। यह बात सच है कि असत्कर्म-समूह मनुष्य के जाग्रत क्षेत्र में रहता है, लेकिन जिन कारणों ने इन बुरे कामों को जन्म दिया, वे इसके पीछे प्रसुप्त और अदृश्य जगत् के हैं और इसलिए अधिक प्रभावशाली हैं। (३.१२०-१२१)
अचेतन को अपने अधिकार में लाना हमारे मनन का पहला भाग है दूसरा है चेतन के परे जाना। अतएव यह स्पष्ट है कि कार्य अवश्य ही दोहरा है। एक तो विद्यमान दो सामान्य प्रवाहों - इड़ा और पिंगला के उचित नियमन द्वारा अवचेतन क्रिया पर नियन्त्रण पाना; और दूसरा, इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना। (३.१२१)
योगी वही है जिसने दीर्घ काल तक स्वयं को एकाग्र करने का अभ्यास करके इस सत्य की उपलब्धि कर ली है। अब सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमें कभी नहीं गया था, वह (जैसा कि आलंकारिक भाषा में कहा है) धीरे धीरे विभिन्न कमल-चक्रों में से होता हुआ, कमल-दलों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है। तब योगी को अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, यह जान लेता है कि वह स्वयं परमेश्वर ही है। (३.१२१-१२२)
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