विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
अब प्रार्थना करो
मन ही मन कहो : “हे प्रभो! संसार में सभी सुखी हों; सभी शान्ति लाभ करें; सभी आनन्द पायें।"
इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चारों ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे, उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे। बाद में देखोगे, 'दूसरे सब लोग स्वस्थ हो', यह चिन्तन ही स्वास्थ्य लाभ का सहज उपाय है। 'दूसरे लोग सुखी हों,' ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है। इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर से प्रार्थना करें - अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् ज्ञान और सत्य-तत्त्व के उन्मेष के लिए। इसको छोड़ बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थ से भरी है। (१.५७)
पहला पाठ
कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। कहावत कहती है कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है और यह बिल्कुल सत्य है। जब तक मन की क्रियाओं पर नजर न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को खुली छूट दो। सम्भव है इसमें बहुत बुरी बुरी भावनाएँ आयें। तुम्हारे मन में इतनी असत् भावनाएँ आ सकती है कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। (१.८७)
सब प्रकार के तर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करनेवाली बातों को दूर कर देना होगा। शुष्क और निरर्थक तर्कपूर्ण प्रलाप से क्या होगा? वह केवल मन के साम्यभाव को नष्ट करके उसे चंचल भर कर देता है। सूक्ष्मतर तत्त्वों की उपलब्धि की जानी चाहिए। केवल बातों से क्या होगा? अतएव सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीके लिखे ग्रन्थ पढ़ो। (१.८९)
अब सोचो
अपने शरीर के बारे में सोचो और ऐसी भावना करो कि यह सबल और स्वस्थ है; यही आपका सर्वोत्तम साधन है। सोचो की यह वज्रवत् दृढ़, सबल और स्वस्थ है तथा इसी शरीर की सहायता से तुम जीवन-समुद्र पार करोगे। अपनी देह से कहो कि यह बलिष्ठ है, अपने मन से कहो कि यह शक्तिशाली है तथा स्वयं में अनन्त विश्वास तथा भरोसा रखो। (१.५७)
ध्यान-विषयक कुछ उदाहरण
सोचो, सिर के ऊर्ध्व देश में, कुछ इञ्चों की ऊँचाई पर एक कमल है, धर्म उसका मूलदेश है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी की अष्ट सिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं और वैराग्य उसके अन्दर के पुंकेसर तथा स्त्रीकेसर हैं। यदि योगी बाह्य शक्तियों को अस्वीकृत करेगा तभी वह मुक्ति प्राप्त करेगा। इसीलिए कमल के अष्टदल अष्टसिद्धियाँ हैं परन्तु भीतरी पुंकेसर तथा स्त्रीकेसर परम वैराग्य, इन सभी शक्तियों का त्याग है। इस कमल के अन्दर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान, अस्पर्श, ओंकारवाच्य, अव्यक्त, किरणों से परिव्याप्त परम ज्योति का चिन्तन करो। उस पर ध्यान करो।
और एक प्रकार का ध्यान है : सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है - उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो, फिर उस ज्योति के अन्दर और एक ज्योतिर्मय ज्योति की भावना करो; वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है - परमात्मस्वरूप ईश्वर है। हृदय में उसका ध्यान करो। (१.१०४)
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