विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
ध्येय तक कैसे पहुँचें
पूरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ - फिर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ। निर्भीक होकर इस प्रकार दिन-रात साधना करने पर छः महीने के भीतर ही तुम एक सिद्ध योगी हो सकते हो। परन्तु दूसरे, जो थोड़ी थोड़ी साधना करते हैं, सब विषयों को जरा जरा चखते हैं, वे कभी कोई बड़ी उन्नति नहीं कर सकते। केवल उपदेश सुनने से कोई फल नहीं होता।
सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, अपरिमित इच्छाशक्ति चाहिए। अध्यवसायशील साधक कहता है, “मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायँगे।" इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे। (१.९०)
सावधान !
प्रत्येक गति वर्तुलाकार में ही होती है। यदि तुम एक पत्थर लेकर अन्तरिक्ष में फेंको, उसके बाद यदि तुम्हारा जीवन काफी हो और पत्थर के मार्ग में कोई बाधा न आये, तो घूमकर वह ठीक तुम्हारे हाथ में वापस आ जायगा। विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यन्त्र में लौट आती है। प्रेम और घृणा के बारे में भी यही नियम लागू होता है, वे अपने उद्गम स्थान में अवश्य लौटेंगे। अतएव किसी से घृणा करनी उचित नहीं, क्योंकि यह शक्ति यह घृणा, जो तुममें से बहिर्गत होगी, घूमकर कालान्तर में फिर तुम्हारे ही पास वापस आ जायगी। यदि तुम मनुष्यों को प्यार करो, तो वह प्यार घूम-फिरकर तुम्हारे पास ही लौट आयेगा। (१.११०)
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