विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
धीरता
नारद नामक एक महान् देवर्षि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े-बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान् योगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। उसने नारद से पूछा, "प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं?" नारद जी ने उत्तर दिया, "मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ।" तब उसने कहा, "अच्छा, आप भगवान् से पूछते आयें, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा।" फिर कुछ दूर और जाने पर नारद जी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूद-फाँद रहा था, कभी नाचता था, तो कभी गाता था। उसने भी नारद जी से पूछा, 'हे नारद, आप कहाँ जा रहे हैं।' उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, वाग्भंगी आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारद जी ने कहा, 'मैं स्वर्ग जा रहा हूँ।' वह व्यक्ति बोला, “अच्छा, तो भगवान् से पूछते आयें, मैं कब मुक्त होऊँगा।" नारद आगे चले गये।
लौटते समय नारद जी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, "देवर्षि, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?" नारद जी बोले, “हाँ, पूछी थी।” योगी ने पूछा, “तो उन्होंने क्या कहा?" नारद जी ने उत्तर दिया, “भगवान् ने कहा, 'मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे।' तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, “मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!” (१.१०५)
नारद जी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये। उसने भी पूछा, “क्या आपने मेरी बात भगवान् से पूछी थी?" नारद जी बोले, “हाँ, सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार तुमको जन्म ग्रहण पड़ेगा।" यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनन्द से नृत्य करने लगा और बोला, “मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा!" (१.१०५-१०६)
तब एक देववाणी हुई "मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे।" उसके अध्यवसाय का यही पुरस्कार था। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था। कुछ भी उसे उद्योगशून्य न कर सका। (१.१०६)
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