विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
ध्यान द्वारा रूपान्तरण
एक युवक था जो अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता था। वह अत्यन्त बलवान और दृढ़ था और अन्त में उसने दस्यु-वृत्ति स्वीकार कर ली। अब वह पथिकों पर आक्रमण करता और उनकी सम्पत्ति लूटकर अपने माता-पिता और स्त्री-पुत्रादि का उदर-पोषण करता। एक बार उस पथ से जा रहे नारद नामक महर्षि पर आक्रमण करने तक ऐसा ही चलता रहा। (७.१३२)
महर्षि ने उससे पूछा, "तुम मुझे क्यों लूट रहे हो? मनुष्यों को लूटना और उनका वध करना तो बड़ा जघन्य दुष्कृत्य है। तुम क्यों यह पाप संचय कर रहे हो?" दस्यु ने उत्तर दिया, "मैं इस अपहृत धन द्वारा अपने कुटुम्बियों का पालन करता हूँ।” देवर्षि नारद ने यह सुनकर कहा, “दस्यु युवक! अच्छा तुमने कभी इस बात का भी विचार किया है कि क्या तुम्हारे आत्मीय जन तुम्हारे पाप में भी सहभागी होंगे?" दस्यु बोला, “निश्चय ही वे सब मेरे पाप का भाग भी ग्रहण करेंगे।" इस पर देवर्षि ने कहा, "बहुत अच्छा, तुम एक काम करो। मुझे इस वृक्ष से बाँध दो और घर जाकर अपने स्वजनों से जरा पूछो तो कि जिस प्रकार वे तुम्हारे पापाचरण द्वारा प्राप्त वित्त का उपभोग करते हैं, उसी प्रकार क्या तुम्हारे पापों का अंश भी ग्रहण करेंगे?" (७.१३२-१३३)
इस पर दस्यु अपने पिता के पास पहुँचा और उसे पूछा, “पिता जी, क्या आप जानते हैं, मैं किस प्रकार आपका पालन-पोषण करता हूँ?" पिता ने उत्तर दिया, "नहीं तो।” तब वह बोला, “मैं दस्यु हूँ - पथिकों को काल के पास पहुँचाकर मैं उनका धन अपहृत करता हूँ।” पिता बोला, "नीच! तू मेरा पुत्र होकर यह पाप कृत्य करता है! दूर हट मेरे सामने से।" तब उसने अपनी माँ के पास पहुँचकर कहा, “माँ, क्या तुम जानती हो, मै किस तरह तुम्हारा भरण-पोषण करता हूँ।" उसने कहा, "नहीं तो।” उसने बताया, “लूट और हत्या से।" माँ यह सुनते ही चीत्कार कर बोल उठी, “उफ! कितना घोर दुष्कर्म!” लेकिन लड़के ने पूछा, “पर माँ! क्या तुम मेरे पाप का भी भाग ग्रहण करोगी?" माँ ने कहा, "कौन, मैं? मैं क्यों तुम्हारे पाप का भाग ग्रहण करूँ? मैने थोड़े ही किसीको लूटा है!
तब अपनी पत्नी के पास पहुँचकर उसने पूछा, “क्या तुम जानती हो, मैं किस भाँति तुम्हारी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता हूँ?" जब पत्नी ने भी 'नहीं' कहा, तो दस्यु बोला, “तो सुन लो। मै एक दस्यु हूँ - एक डाकू और लुटेरा हूँ। वर्षों से मैं पथिकों को लूट लूटकर तुम सबका उदर-पोषण कर रहा हूँ। और आज मैं तुमसे यह पूछने आया हूँ कि क्या तुम मेरे पाप में मेरी सहभागी बनोगी?" पत्नी ने तत्क्षण उत्तर दिया, "नहीं - कदापि नहीं! तुम मेरे पति हो, और मेरा पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है।"
दस्यु की आँखें खुल गयीं। उसने कहा, "यह है इस संसार की रीति ! जिनके लिए मैं यह पाप-कृत्य कर रहा हूँ, वे मेरे आत्मीय भी मेरे प्रारब्ध के भागी नहीं होंगे।" वह उस स्थान पर आया, जहाँ उसने देवर्षि को बाँध रखा था, और उन्हें बन्धनमुक्त कर वह उनके चरणों में गिरकर आद्योपान्त सारी घटना सुनाकर बोला, "प्रभो! मेरी रक्षा करो - मैं क्या करूँ?" (७.१३३)
देवर्षि ने कहा, "इस पापपूर्ण दस्युवृत्ति का परित्याग कर दो। तुमने देख लिया कि तुम्हारे स्वजनों में कोई भी तुमसे सच्चा प्रेम नहीं करता। इसलिए इन सब मोहपूर्ण भ्रान्तियों को त्याग दो। तुम्हारे स्वजन तुम्हारे ऐश्वर्य में तुम्हारा साथ देंगे, पर जिस क्षण उन्हें ज्ञात हो जायगा कि तुम दरिद्र हो गये हो, उसी क्षण वे तुम्हें छोड़कर चले जायेंगे। वे तुम्हारे शुभ के भागी तो हैं, किन्तु अशुभ का साथी कोई नहीं होना चाहता। इसलिए उसकी उपासना करो, जो पाप-पुण्य सभी अवस्थाओं में हमारा साथ देता है। वह हमारा परित्याग कभी नहीं करता, क्योंकि प्रेम कभी नीचे नहीं गिराता, उसमें विनिमय नहीं होता - वह स्वार्थपरता से कोसों दूर रहता है।” (७.१३३-१३४)
तदुपरान्त देवर्षि ने उसको ईश्वरोपासना की विधि सिखलायी, और वह सर्वस्व परित्याग कर अरण्य-प्रदेश में साधना करने चला गया। वहाँ ईश्वराराधना और ध्यान में वह धीरे धीरे इतना तल्लीन हो गया कि उसे देह-ज्ञान भी न रहा, यहाँ तक कि दीमकों ने उसकी देह पर अपने वल्मीक बना लिये और उसे इसका भान तक न हुआ। अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर एक दिन दस्यु को यह ध्वनि सुनायी पड़ी, 'उठिए, महर्षि उठिए।' वह चकित होकर बोल उठा, “महर्षि? नहीं मैं तो एक अधम दस्यु हूँ।" फिर वही वाणी उसे सुनायी दी, “अब तुम दस्यु नहीं रहे - तुम अब तपोपूत महर्षि हो और तुम्हारा वह पुराना नाम भी लुप्त हो गया है। तुम्हारी समाधि इतनी गहरी थी, तुम ईश्वर-ध्यान में इतने तल्लीन हो गये थे कि तुम्हारी देह के चतुर्दिक जो वल्मीक बन गये, उनका तुम्हें ज्ञान तक न हुआ! इसलिए आज से तुम वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए।" वाल्मीकि अर्थात जो दीमक के घर में पैदा हुए। इस प्रकार वह महर्षि बन गया। (७.१३४)
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