विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
पवहारी बाबा : एक आदर्श योगी
उस चोर के बारे में तो प्रत्येक ने सुना है जो (पवहारी बाबा के) आश्रम में चोरी करने आया था परन्तु इन सन्त को देखते ही वह भयभीत हो, चुराये हुए सामान की गठरी वहीं फेंककर भाग गया था। कैसे ये संत वह गठरी लिये उस चोर के पीछे मीलों की कठिन दौड़ के बाद उसके पास जा पहुँचे। कैसे उस सन्त ने वह गठरी चोर के पैरों में रखी और हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से (चोर के कार्य में) बाधक होने के कारण क्षमा माँगी तथा अत्यन्त कातरतापूर्वक उससे प्रार्थना की कि वह उन वस्तुओं को स्वीकार करे क्योंकि वे उसी की थीं, उन (सन्त) की अपनी नहीं।
हमें विश्वस्त प्रमाणों द्वारा यह भी बताया गया है कि कैसे एक बार एक काले विषधर (कोबरे) साँप ने उन्हें काट लिया। यद्यपि घंटों तक उन्हें मृत समझ कर आशा छोड़ दी गयी थी परन्तु वे पूर्ववत् स्वस्थ हो गये; जब उनके मित्रों ने उनसे इसके सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने यही कहा, “यह नाग तो हमारे प्रियतम का दूत था।” (९.२६९)
उनकी एक विशेषता यह थी कि वे जिस समय जो काम हाथ में लेते थे, वह चाहे कितना ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें वे पूर्णतया तल्लीन हो जाते थे। जिस प्रकार श्री रघुनाथ जी की पूजा वे पूर्ण अंत:करण से करते थे, उसी प्रकार एकाग्रता तथा लगन के साथ वे एक तांबे का क्षुद्र बरतन भी माँजते थे। उन्होंने हमें कर्म-रहस्य के सम्बन्ध में यह शिक्षा दी थी कि 'जस साधन तस सिद्धि', अर्थात् 'ध्येय-प्राप्ति के साधनों से वैसा ही प्रेम रखना चाहिए मानो वे स्वयं ही ध्येय हों।' और वे स्वयं इस महान् सत्य के उत्कृष्ट उदाहरण थे। (९.२७०)
लेखक ने एक समय इन संत से पूछा था कि संसार की सहायता करने के लिए वे अपनी गुफा से बाहर क्यों नहीं आते। (९.२६८) उन्होंने ऐसा उत्तर दिया, “तुम्हारी क्या ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता हो सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन ही दूसरों के मन की सहायता नहीं कर सकता?” (९.२६९)
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