विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
बुद्ध के बारे में आख्यायिका
जब गौतम बुद्ध हो गये तब वे इतने पवित्र थे कि दूर से भी जो कोई उनका दर्शन करता वह तुरन्त आनुष्ठानिक धर्म को छोड़कर भिक्षु बनकर बच निकलता था। अतः देवताओं ने सभा की। उन्होंने कहा, 'हम तो गये काम से।' क्योंकि अधिकांश देवता अनुष्ठानों के सहारे रहते थे। ये यज्ञ देवताओं के लिये होते थे और अब ये यज्ञ नहीं रहे। देवगण भूखे मर रहे थे और इसका कारण यह था कि उनका प्रभुत्व समाप्त हो गया था।
अतः देवताओं ने कहा, 'किसी भी प्रकार से हमें इस व्यक्ति का काम तमाम करना चाहिये। वह हमारे जीवन की तुलना में कहीं अधिक पवित्र है।' और तब देवगण आकर (बुद्ध से) बोले, 'भगवन्! हम आपसे कुछ माँगने आये हैं। हम एक महायज्ञ करना चाहते हैं तथा हमारा अभिप्राय विशाल अग्नि प्रज्वलित करने का है, तथा हम सम्पूर्ण विश्व में किसी ऐसे पवित्र स्थान की खोज करते आ रहे हैं जहाँ हम अग्नि प्रज्वलित कर सकें परन्तु ऐसा स्थान हम नहीं खोज पाये, और अब हमने इसे खोज लिया है। यदि आप लेट जायें, तो आपकी छाती पर हम विशाल अग्नि प्रज्वलित करेंगे। बुद्ध ने कहा, 'तथास्तु, ऐसा ही करो।'
और देवताओं ने बुद्ध की छाती पर उच्च शिखा की अग्नि प्रज्वलित की, तथा उन्होंने सोचा कि बुद्ध के प्राण निकल गये, परन्तु बात ऐसी नहीं थी। तब देवगण अपनी चेष्टा में लगे रहे और बोले, 'हम तो हार गये।' फिर सभी देवता उन पर प्रहार करने लगे। कुछ लाभ न हुआ। वे बुद्ध को मार नहीं सके। तब नीचे से यह ध्वनी आती है, 'तुम लोग ये सभी व्यर्थ प्रयत्न क्यों कर रहे हो?'
'जो कोई भी तुम्हे देखता है वह पवित्र हो जाता है तथा उसका उद्धार हो जाता है, तथा कोई भी हमारी पूजा नहीं करेगा।'
तब तो तुम्हारा प्रयत्न विफल है, क्योंकि पवित्रता को कभी भी मारा नहीं जा सकता।' (विवेकानन्द साहित्य, खण्ड-३ (अंग्रेजी), पृ. ५२५ से उद्धृत अनुच्छेद का अनूदन)
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