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ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5917
आईएसबीएन :9789383751914

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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।

स्वामी विवेकानन्द के दिव्य व्यक्तित्व की झलकियाँ

'क्या तुम सोने से पहले प्रकाश देखते हो?'

लड़के ने आश्चर्यपूर्ण आवाज से कहा, 'हाँ देखता हूँ, क्या हर कोई ऐसा नहीं देखता?'

यह बात उस समय के तुरन्त बाद की है जब श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को पहली बार मिलने के बाद प्रश्न पूछा था और उसके उत्तर ने इस विलक्षण युवा, जो बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से सुविख्यात होने वाला था, के भूतकाल, स्वभाव तथा भावी भवितव्यता के बारे में श्रीरामकृष्ण को गहन अन्तर्दृष्टि प्रदान की। परवर्ती वर्षों में स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं इस असाधारण मनःशक्ति का वर्णन किया था : 'जब से मैंने होश संभाला, उस प्रारम्भिक समय से ही, जैसे ही मैं सोने के लिये आँखे बन्द करता तो भ्रूमध्य में प्रकाश का एक अद्भुत बिन्दु देखा करता था तथा अतिध्यानपूर्वक मैं इसके अनेक परिवर्तनों को देखता था। प्रकाश का यह आलोक-बिन्दु रंग बदलता था तथा एक गेंद का आकार लेने तक बढ़ता रहता था; अन्त में यह फटकर सिर से पैरों तक मेरे सम्पूर्ण शरीर को दुधिया तरल प्रकाश में व्याप्त कर देता था। ऐसा होते ही मेरी बाह्य चेतना लुप्त हो जाती थी तथा मैं सो जाता था। मैं विश्वास किया करता था कि प्रत्येक व्यक्ति इसी प्रकार सोता होगा। फिर जब मैं बड़ा हुआ तथा ध्यान का अभ्यास करने लगा तो आँखे बन्द करते ही वह प्रकाशबिन्दु मुझे दिखायी देता और मैं उस पर मन एकाग्र किया करता था।'

स्वामी विवेकानन्द की जीवन-कथा एक अद्भुत घटना की तरह है। वे आदर्श योगी तथा संन्यासी, शिक्षक तथा नेता, रहस्यवादी तथा कर्मयोगी और दार्शनिक थे। वे पराभक्ति में सिद्ध होते हुए भी परमज्ञानी थे। वे समर्पित मानवतावादी, संङ्गीतनायक और अति उत्कृष्ट वक्ता थे तथा व्यायाम और खेलकूद में पारङ्गत थे। स्वामी विवेकानन्दजी में आदर्श मनुष्य की झाँकी मिलती है। उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने उनके बारे में कहा था : 'नरेन्द्र का आधार बड़ा है - वह ध्यानसिद्ध है। वह माया के आवरण को भी ज्ञान की तलवार से काटकर छिन्न-भिन्न कर देता है। अगम्य माया उसे कभी वश में नहीं ला सकती।'

उन दोनों के प्रथम मिलन के पूर्व ही श्रीरामकृष्ण को हुए एक दिव्य दर्शन में उनके इस अद्वितीय शिष्य के वास्तविक स्वभाव का रहस्य खुल चुका था। स्वामी विवेकानन्द अचल चट्टान की तरह समाधिमग्न पुरातन ऋषि थे। समाधि में दक्ष श्रीरामकृष्ण ने उस दिव्य पुरुष को ध्यान की उच्च अवस्था से प्रकृतिस्थ अवस्था में लाया। जैसे कि मानो उन्होंने उस चट्टान पर शक्तिशाली प्रहार करके संसारभर में अपने मार्ग को इस प्रकार द्रुतगति से चलने का मार्गदर्शन दिया कि वह जहाँ भी जाये आध्यात्मिकता को उद्भासित करे तथा संकीर्णता एवं अज्ञान का नाश करें।

श्रीरामकृष्ण ने अपने अन्य शिष्यों से नरेन्द्र के दिव्यदर्शनों के बारे में इतना ही कहा : 'एक दिन देखता हूँ, मन समाधि-पथ में ज्योतिर्मय मार्ग से उपर उठता जा रहा है। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रादि से भरे हुए स्थूल जगत् को सरलता से लाँघकर वह पहले-पहल सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ। उस राज्य के उच्च से उच्चतर स्तरों पर वह जितना ही चढ़ने लगा, उतना ही विभिन्न देवी-देवताओं की भावघन विभिन्न मूर्तियों को रास्ते के दोनों ओर देखने लगा। धीरे धीरे वह उस राज्य की चरम सीमा पर आ पहुँचा। वहाँ मैंने देखा, एक ज्योतिर्मय रेखा ने खण्ड और अखण्ड के राज्य को अलग अलग कर दिया है। उस रेखा को लाँघकर मन धीरे धीरे अखण्ड के राज्य में प्रविष्ट हुआ। मैंने देखा, वहाँ पर साकार कुछ भी नहीं है। दिव्य देहधारी देवी-देवतागण भी मानो यहाँ प्रवेश करते भयभीत होकर बहुत दूर नीचे अपना अधिकार चला रहे हैं। परन्तु दूसरे ही क्षण देखा, दिव्य ज्योतिसम्पन्न सात श्रेष्ठ ऋषि वहाँ पर समाधिस्थ होकर बैठे हैं। मैं समझ गया कि ज्ञान और पुण्य में, त्याग और प्रेम में इन्होंने, मानवों की तो बात ही क्या, देवी-देवताओं को भी दूर छोड़ दिया है। मैं विस्मित होकर इन ऋषियों की महानता के बारे में सोच ही रहा था कि एकाएक दीख पड़ा, सम्मुखस्थ अखण्ड के घर के भेदरहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर दिव्य शिशु के रूप में परिणत हुआ। उस देवशिशु ने इनमें से एक के पास उतरकर अपनी अपूर्व सुललित बाहुओं से उनके गले को प्रेम के साथ लपेट लिया। इसके बाद वीणाध्वनि से भी सुमधुर अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेम के साथ पुकारकर उन्हें समाधि से जगाने के लिये भरसक चेष्टा करने लगा। बालक के कोमल, प्रेमपूर्ण स्पर्श से ऋषि समाधी से जागे और अर्धनिमीलित निर्निमेष नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे। उनके मुख का प्रसन्नोज्ज्वल भाव देखकर ऐसा लगा, मानो वह बालक बहुकाल से उनका परिचित और हृदयनिधि ही हो। वह अद्भुत देवशिशु असीम आनन्द के साथ उनसे कहने लगा, 'मैं जा रहा हूँ तुम्हें आना होगा।' उसके इस अनुरोध पर ऋषि ने कहा तो कुछ नहीं परन्तु उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों ने उनके हृदय की सम्मति व्यक्त कर दी। ... नरेन्द्र को देखते ही मैंने समझ लिया था कि यही वह दैवी पुरुष है।' बाद में श्रीरामकृष्ण ने यह बात बतायी कि वह दिव्यशिशु और कोई नहीं, वे स्वयं ही थे।

स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी, सन् १८६३ को कोलकाता में हुआ था। प्रारम्भ से ही वे छोटे होते हुए भी अतिपरिपक्व बुद्धि तथा असाधारण ओजस्विता के धनी बालक थे। परन्तु फिर भी प्रारम्भिक अवस्था से ही ध्यान के प्रति उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति दिखायी दी। क्योंकि बचपन में बालसुलभ खेलों के साथ साथ ध्यान भी उनके खेल का एक अंग ही था।

एक बार नरेन्द्र अपने मित्रो सहित ध्यान कर रहे थे कि तभी एक जहरीला नाग आ निकला। अन्य लड़के भयभीत हो गये तथा उसे चेतावनी देते हुए भाग खड़े हुए। परन्तु नरेन्द्र अचल बैठे रहे। तथा थोड़ी देर मण्डराने के बाद वह विषधर वहाँ से सरक गया। बाद में उसने अपने माता-पिता से कहा था, 'मुझे विषधर या अन्य किसी बात का पता ही नहीं चला, मैं अवर्णनीय आनन्द का अनुभव कर रहा था।'

पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्होंने आध्यात्मिक परमानन्द का अनुभव किया। उस समय वे अपने आत्मियों सहित मध्यभारत के रायपुर नगर की ओर जा रहे थे, तथा यात्रा का कुछ भाग बैलगाड़ियों से पार करना पड़ता था। विशेषकर उस दिन वातावरण स्फूर्तिदायक तथा निर्मल था। पेड़ तथा लताएँ पुष्पों से आच्छादित थे। चमकीले पंखोंवाले पक्षी वन में गा रहे थे। बैलगाड़ी एक सङ्कीर्ण गिरि-द्वार में से होकर जा रही थी जहाँ दोनों ओर के उच्च पर्वतशृंग मानो एक दूसरे को प्रायः स्पर्श कर रहे थे। नरेन्द्र को एक दण्डायमान विशाल चट्टान की दरार में मधुमाखियों का एक विशाल छत्ता दृष्टिगोचर हुआ जो वहाँ चिरकाल से रहा होगा। अकस्मात् उनका मन विधाता के प्रति विस्मय तथा श्रद्धा से भर उठा तथा वे बाह्य चेतना खो बैठे। कदाचित् यह प्रथम अवसर था जब उनकी प्रबल कल्पनाशक्ति ने अतीन्द्रिय परमचैतन्य के राज्य में आरूढ़ होने में उनकी सहायता की थी।

एकबार विद्यार्थी काल में स्वामी विवेकानन्द को भगवान् बुद्ध का दिव्यदर्शन हुआ था, जिसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है : 'एक रात स्कूल के एक कक्ष में द्वार बन्द किये मैं ध्यान कर रहा था तथा मेरा मन काफी गहनतापूर्वक एकाग्र हो गया था। कह नहीं सकता कि मैं उस प्रकार कितनी देर ध्यानमग्न रहा। ध्यान हो जाने पर भी मैं आसन पर बैठा रहा, तभी उस कक्ष की दक्षिणी दीवार से एक उज्ज्वल आकृति कदम बढ़ाते हुए मेरे सामने खड़ी हो गयी। यह एक संन्यासी की आकृति थी, जो नितान्त प्रशान्त, मुण्डित-मस्तक, तथा एक हाथ में दण्ड तथा एक में कमण्डलु धारण किये हुए थी। उन्होंने कुछ देर मेरी ओर एकटक देखा और लगा कि वे मुझे सम्बोधित करेंगे। मैं भी आश्चर्य से निर्वाक् उनकी ओर एकटक देखने लगा। अचानक एक प्रकार के भय ने मुझे जकड़ लिया। मैंने द्वार खोला तथा तुरन्त कमरे से बाहर भाग गया। तब मेरे मन में आया कि इस प्रकार भागना मेरी मूर्खता थी, शायद वे (संन्यासी) मुझे कुछ कहते। परन्तु उसके बाद मैंने वह आकृति कभी नहीं देखी। मुझे लगता है कि जिन्हें मैंने देखा था वे भगवान् बुद्ध थे।

प्रारम्भिक भेंटों में एक बार श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द का जादुई स्पर्श किया जिससे स्वामी विवेकानन्द के मन से द्वैतभाव नष्ट हो गया तथा उन्हें अतीन्द्रिय, लोकोत्तर चैतन्य के राज्य का भान करवाया। साधारणतः गुरु शिष्य को जीवन के लक्ष्य के रूप में समाधि-अवस्था प्राप्त करने में सहायता करते हैं। परन्तु श्रीरामकृष्ण को अपने शिष्य से कहीं अधिक आशाएँ थीं। स्वामी विवेकानन्दजी की इच्छा थी कि वे लगातार तीन-चार दिन तक निर्विकल्प समाधि में रहें, और केवल भोजन के लिये ही इस अवस्था से बाहर आयें। परन्तु वास्तव में उनकी ऐसी इच्छा जानकर श्रीरामकृष्ण ने उनकी यह कहते हुए भर्त्सना की थी, 'तुम्हें शर्म आनी चाहिये कि तुम ऐसी क्षुद्र माँग कर रहे हो, मैंने तो सोचा था कि तुम एक विशाल वटवृक्ष की तरह बढ़ोगे और हजारों लोग तुम्हारी छाया में विश्राम करेंगे। परन्तु अब देखता हूँ कि तुम अपनी ही मुक्ति खोज रहे हो।' इस प्रकार डाँटे जाने पर स्वामी विवेकानन्द श्रीरामकृष्ण के हृदय की विशालता जानकर रोने लगे।

काशीपुर के उद्यान-भवन में स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त तथा योग की चरम अनुभूति, निर्विकल्प समाधि का अनुभव किया। एक दिन वे अपने गुरुभाई बूढ़े- गोपाल के साथ ध्यानमग्न थे तो उन्हें लगा कि उनके सिर के पीछे कोई ज्योति रख दी गई है। यह ज्योति प्रबल से प्रबलतर होती गयी। तब वे देश-काल-निमित्त के परे अवस्थित परमसत्ता में विलीन हो गये। जब उन्होंने थोड़ी-सी जागतिक चेतना पायी तो उन्हें केवल अपने सिर का ही भान था, शेष शरीर का नहीं। वे चिल्ला उठे, 'गोपाल भैया, मेरा शरीर कहाँ है?' गोपाल ने उन्हें पुनर्सान्त्वना देते हुए कहा, 'यही तो है।' परन्तु जब वे स्वामीजी को विश्वास नहीं दिला सके तो गोपाल भयभीत हो उठे तथा श्रीरामकृष्ण को यह बात बताने के लिये दौड़े। श्रीरामकृष्ण ने केवल यही कहा : 'उसे और भी कुछ देर तक इसी अवस्था में रहने दो उसने इसके लिये मुझे बहुत तंग किया है।'

बहुत देर बाद स्वामी विवेकानन्द साधारण अवस्था में लौटे। अकथनीय शान्ति और आनन्द से उनका हृदय तथा मन भर गया। वे श्रीरामकृष्ण के पास आये तो उन्होंने कहा, 'अब जगदम्बा ने तुम्हें सब कुछ दिखा दिया है, परन्तु इस समय तुम्हारी यह अनुभूति ताले में बन्द रहेगी तथा इसकी चाभी मेरे पास रहेगी। जब तुम माँ का कार्य पूरा कर लोगे तो यह कोष पुनः तुम्हारा हो जायेगा।'

इसी समय की एक रोचक घटना श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ शिष्य गिरिशचन्द्र घोष ने बतायी थी। एक दिन स्वामी विवेकानन्द तथा गिरिश एक वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे। वहाँ असंख्य मच्छर थे जिन्होंने गिरिश को इतना परेशान किया कि वे अधीर हो उठे। आँखें खोलते ही वे यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये कि स्वामी विवेकानन्द का शरीर मानो एक काले कम्बल से ढका हुआ था - उन पर इतनी संख्या में मच्छर बैठे हुए थे! परन्तु वे उनकी उपस्थिति से नितान्त अनजान थे तथा सहज अवस्था में आने पर भी उन्हें उन मच्छरों का भान न था।

श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात् स्वामी विवेकानन्द ने परिव्राजक संन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया। वे एक ऐसे निर्जन स्थान की खोज में थे जहाँ वे एकान्त रहते हुए ईश्वरचिन्तन में लीन रह सकें। इस समय भगवान् बुद्ध के ये शब्द उनका नेतृत्व कर रहे थे : 'जैसे सिंह कोलाहलो से नहीं काँपता, जैसे वायु को जाल में नहीं बाँधा जा सकता; जैसे कमल-पत्र जल से अछूता रहता है - उसी प्रकार तुम भी गैंडे की तरह अकेले विचरण करो!' परन्तु दैवी विधान ने उनके लिये कुछ और ही योजनाएँ बना रखी थीं तथा वे अपनी नियति से बच न सके। जैसे कि परवर्तीकाल में उन्होंने लिखा था : 'मेरे सम्पूर्ण जीवन में किसी भी बात ने करणीय कर्म की भावना को इस प्रकार से कूट कूट कर नहीं भरा। मानो मुझे नीचे मैदानी क्षेत्रों में यत्र-तत्र भ्रमण करने के लिये गुफाओं के उस जीवन से (बाहर) पटक दिया गया।'

हिमालय में भ्रमण करते हुए एक दिन एक सरिता के तट पर वे ध्यान के लिये बैठे। वहाँ उन्हें ब्रह्माण्ड तथा व्यक्ति के ऐक्य की ऐसी अनुभूति हुई कि मनुष्य ब्रह्माण्ड का ही छोटा रूप है। उन्होंने अनुभव किया ब्रह्माण्ड में जो कुछ है, वही शरीर में भी है और फिर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकाकी अणु में समाविष्ट हुआ पाया जा सकता है। उन्होंने इस अनुभव को एक पुस्तिका में दर्ज कर लिया तथा अपने गुरुभाई तथा सहचर स्वामी अखण्डानन्द को बताया : 'आज मैने जीवन की अत्यन्त जटिल समस्याओं का समाधान पा लिया है। मुझे यह उद्घाटित हुआ है कि ब्रह्माण्ड (समष्टि) तथा विश्व का लघु प्रतिरूप अणु या मानव (व्यष्टि) एक ही सिद्धान्त द्वारा संचालित होते हैं।'

३१ मई, सन १८९३ के दिन स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में विश्वधर्मसभा में भाग लेने के लिये शिकागो के लिये प्रस्थान किया। परन्तु उनका सन्देश इतना सार्वभौमिक था कि एक अवलोकनकर्ता ने टिप्पणी की थी: 'विवेकानन्द विश्व के सभी धर्मों के प्रतिनिधि थे।' उन्होंने वेदान्त का महानतम सन्देश उद्घोषित किया : 'तुम ईश्वर की सन्तान हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस पृथ्वी पर देवता हो - तुम और पापी ! मनुष्य को पापी कहना ही पाप है। यह मनुष्य-स्वभाव का घोर अपमान है!'

अगले तीन वर्ष उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोप के अनेक देशों का व्यापक भ्रमण किया। परन्तु फिर भी पश्चिमी जगत का व्यस्त जीवन उनके ध्यान में बाधा नहीं डाल सका। स्वामी विवेकानन्द में हम कर्मठता तथा ध्यान के दो विरोधी प्रवाहों को एक दूसरे को बाधित किये बिना समग्रतापूर्वक बहते हुए पाते हैं। प्रवचनों तथा सार्वजनिक व्याख्यानों से लगभग क्लान्त हुए स्वामीजी ने सन् १८९५ के जून मास के प्रारम्भ में चीड़ के जंगलों में कुछ समय आराम और शान्ति में बिताने के लिये पर्सी, न्यू हैम्पशायर जाने के लिये श्री फ्राँसिस लेगेट का निमन्त्रण स्वीकार किया। यहाँ भी उन्हें निर्विकल्प समाधि की अनुभूति हुई। पर्सी से १ जून, सन् १८९५ को लिखे पत्र में वे श्रीमती ओली बुल को लिखते हैं :

'मैने जितने भी सुन्तरतम स्थल देखे है उनमें से यह एक है। अनुमान करो कि विशाल वन से आच्छादित पर्वतों से घिरी एक झील है जहाँ हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं है। यह (परिवेश) इतना मनोहर, इतना शान्त, इतना आरामदेह है और तुम अनुमान लगा सकती हो कि नगरों के कोलाहल के बाद यहाँ रहते हुए मैं कितना प्रसन्न हूँ।

'यहाँ का निवास मुझे जीवन की नयी अवधि देता है। मैं अकेला वन में जाता हूँ तथा गीता पढ़ता हूँ और खूब आनन्द में हूँ। मैं लगभग दस दिनों में यह स्थान छोड़ दूँगा तथा थाऊज़ेंड आइलेंड पार्क जाऊँगा। वहाँ मैं लगातार घण्टों ध्यान करूंगा तथा बिल्कुल अकेला रहूँगा यह विचार ही आकर्षक है।

भारतीय कला एवं स्थापत्य में, अनुभूति की अवस्था तथा परम ज्ञानोदय को भगवान बुद्ध की ध्यानाकृति में चित्रित किया गया है। स्वामीजी की शिष्या श्रीमती मेरी फंकी के संस्मरणों के अनुसार स्वामीजी में भी वही उत्कृष्ट आदर्श देखा जा सकता है :

'(थाऊज़ेड आइलैंड पार्क में) यह अन्तिम दिन बड़ा ही अद्भुत और मूल्यवान था ... उन्होंने क्रिस्टीन तथा मुझे अपने साथ टहलने के लिये चलने को कहा, और किसी को साथ नहीं ले जाना चाहते थे। ... हम लगभग आधे मील दूर स्थित एक पहाड़ी पर चढ़े। चारों ओर वन तथा नीरवता का साम्राज्य बिखरा पड़ा था। अन्त में उन्होंने नीची शाखाओं वाले एक वृक्ष को चुना और हम उन विस्तीर्ण शाखाओं के नीचे बैठ गये। हमें आशा थी कि वे बातचीत करेंगे, परन्तु सहसा वे कह उठे, “अब हम ध्यान करेंगे। हम बोधिवृक्ष के नीचे आसीन बुद्ध के समान हो जाएँगे।" वे इतने निश्चल हो गये कि मानो कोई कॉस्य-मूर्ति हो। फिर आँधी आयी और वर्षा भी होने लगी। परन्तु उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध न था। मैंने अपना छाता उठा कर यथासम्भव उनकी रक्षा की। ध्यान में पूर्णतयः डूबे हुए उन्हें बाह्य परिवेश का बिल्कुल भी भान नहीं रहा था। शीघ्र ही हमने दूर से उच्च स्वर में आवाज सुनी। बाकी लोग बरसातियाँ तथा छाते लिये हमें ढूँढ़ने निकल पड़े थे। स्वामीजी ने आँखें खोलकर खेदपूर्वक चारों ओर देखा और कहा, “मैं एक बार पुनः कोलकाता की वर्षा में आ पड़ा हूँ।”

यह नहीं भूलना चाहिये कि जैसे कि श्रीरामकृष्ण ने कहा था कि नरेन्द्र कोई साधारण मनुष्य नहीं अपितु नित्यसिद्ध (जन्म से ही सिद्ध) तथा ईश्वरकोटि (भगवान के विशेष दूत) थे जो एक दिव्य ध्येय की पूर्ति के लिये धरा पर जन्मे थे। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, 'मैं सर्वत्र मनुष्यजाति को तब तक प्रेरित करता रहूँगा जब तक संसार यह जान ले कि वह ईश्वर के साथ एकसार है।

जीवन भर उन्होंने एकाग्रता का इतना अभ्यास किया कि यह उनके व्यक्तित्व की एक आयाम ही बन गयी। पश्चिमी देशों में उन्हें इस परमप्रिय आदत को नियन्त्रित करना पड़ा। भगिनी निवेदिता हमें बताती हैं : 'एक बार न्यू यॉर्क में ध्यान के प्रशिक्षार्थियों को सिखाते हुए यह पाया गया कि अन्त में उन्हें सामान्य चैतन्य अवस्था में नहीं लाया जा सका और उनके छात्र एक एक कर चुपचाप वहाँ से चल दिये। परन्तु जब उन्हें इस घटना का पता चला तो वे अत्यन्त सन्तप्त हुए तथा भविष्य में ऐसी पुनरावृत्ति का संकट नहीं उठाया। एक या दो साधकों सहित निर्जन में ध्यान के समय वे एक ऐसा शब्द बता दिया करते थे जिस के उच्चारण से उन्हें सामान्य अवस्था में लाया जा सकता था।'

उत्तरी कैलीफोर्निया में कैम्प इर्विङ्ग में निवासकाल में एक प्रातः स्वामीजी ने शान्ति (श्रीमती हैन्सबरो) को उस समय रसोईघर में भोजन तैयार करते पाया जब स्वामीजी की प्रातःकालीन ध्यान-कक्षा का समय था। उन्होंने पूछा, 'क्या आप ध्यान के लिये नहीं आ रहीं।' शान्ति ने उत्तर दिया कि उसने अपने कार्य को समुचित ढंग से सुनियोजित करने में अवहेलना की है, अतः अब उसे रसोईघर में रहना होगा। स्वामीजी ने कहा: 'ठीक है, कोई बात नहीं। हमारे गुरुदेव ने कहा है कि सेवाकार्य के लिये आप अपना ध्यान छोड़ सकते हैं। ठीक है, मैं आपके लिये ध्यान करूंगा।' शान्ति ने बाद में कहा था, 'कक्षा के पूरे समय मैंने अनुभव किया कि वे मेरे लिये ध्यान कर रहे हैं।'

अपने ध्येय तथा पार्थिव जीवन का समापन समीप आते ही स्वामी विवेकानन्द ने पूर्वापेक्षा अधिक स्पष्ट जान लिया कि कैसे संसार एक रंगमंच की तरह है। अब उनके नेत्र उनके वास्तविक वास - परलोक के प्रकाश को और भी अधिक देख रहे थे। अपनी विश्वस्त 'जो' अर्थात कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को १८ अप्रैल, सन् १९०० को केलीफोर्निया से लिखे पत्र में उन्होने स्वधाम लौटने की भावना को कितने जीवन्त तथा मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है :

'कर्म सदैव ही कठिन है। जो (कुमारी जोसेफिन् मेक्सिआड), मेरे लिये प्रार्थना करो कि मेरा कर्म सदा के लिये थम जाये, मेरा सम्पूर्ण मनःप्राण माँ की सत्ता में डूबकर एकरूप हो जाये। अपना कार्य वे ही जानती हैं। मानसिक रूप से मैं अच्छा, बहुत ही अच्छा हूँ। मैं शरीर से अधिक आत्मा की विश्रान्ति को अधिक अनुभव कर रहा हूँ। युद्धों में जय-पराजय दोनों ही होती हैं। मैंने गठरी बाँध ली है और उस महामुक्तिदाता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

अब शिव पार करो मेरी नैया' - हे शिव, हे शिव, मेरी नैया को पार लगा दो।'

फिर भी, जो, मैं तो अब भी वही बालक हूँ, जो दक्षिणेश्वर में पञ्चवटी के नीचे बैठकर, विभोर और विस्मित चित्त से श्रीरामकृष्ण की अद्भुत वाणी को सुना करता था। यही मेरा वास्तविक स्वभाव है; कर्म, उद्योग, परोपकार आदि ये सब केवल उपरी बातें हैं। अहा ! अब मैं पुनः उनकी वही मधुर वाणी - वही चिरपरिचित मधुर कण्ठस्वर सुन पा रहा हूँ, जो मेरे अन्तःकरण को रोमाञ्चित कर रहा है। सारे बन्धन टूट रहे हैं - मोह-ममता समाप्त हो रही है, कर्म नीरस प्रतीत हो रहा है - जीवन के प्रति आकर्षण ही चला गया है। अब तो केवल प्रभु की वाणी ही पुकार रही है - आता हूँ प्रभो, आता हूँ! वे कह रहे हैं, “मृतकों को दफनाने का काम मृतकों पर ही छोड़ दे।" ('Let the dead bury the dead. Follow thou Me.' (Bible. Matthew, 8.22) (अर्थात संसार के लोग ही संसार का भला-बुरा देखें), तू (सब कुछ छोड़कर) मेरे पीछे चला आ।”

'आता हूँ प्रभो, आता हूँ!

'हाँ, मैं आ रहा हूँ। निर्वाण तो मेरे समक्ष ही है। अनेक बार मैं इसका स्पष्ट अनुभव करता हूँ - वही अनन्त असीम शान्ति का समुद्र - माया का एक भी श्वास या तरङ्ग इसमें नहीं है।

'ओह यह कितना शान्त है!'

श्रीरामकृष्ण ने भविष्यवाणी की थी की अपना कार्य समाप्त कर लेने पर जब नरेन्द्र यह जान लेगा कि वह कौन और क्या है तो वह निर्विकल्प समाधि में लीन हो जायेगा। एक दिन बेलुड़ मठ में जब एक गुरुभाई ने यूँ ही पूछा, 'स्वामीजी, क्या आप जानते हैं कि आप कौन है?' तो उन्हें विस्मयाकुल होकर स्वामीजी के इस अप्रत्याशित उत्तर से चुप हो जाना पड़ा था, 'हाँ, अब मैं जानता हूँ।'

स्वामी विवेकानन्द का इस जगत से प्रस्थान भी उतना ही अद्भुत था जितना इसमें आगमन। पञ्चाङ्ग देखने के पश्चात उन्होंने अपनी जीवन लीला को समाप्त करने का शुभ दिन चुना। यह ४ जुलाई सन् १९०२ का दिन था। उस दिन उन्होंने प्रातः ३ घण्टे ध्यान किया, तथा अपराह्न युवा संन्यासियों को संस्कृत व्याकरण तथा वेदान्त दर्शन पढ़ाया। तत्पश्चात् उन्होंने अपने एक गुरुभाई के साथ लम्बी सैर की।

उनके अन्तिम क्षणों के बारे में भगिनी निवेदिता ने इस प्रकार का विवरण दिया है : 'जब वे इस सैर से लौटे तो संध्यारति की घण्टी बज रही थी, तथा वे अपने कमरे में गये और गङ्गा की ओर मुँह करके ध्यान के लिये बैठ गये। यह अन्तिम ध्यान था। उस ध्यान के पंखों पर आरूढ़ होकर उनकी चेतना इतनी उच्च अवस्था में चली गयी जहाँ से पुनः प्रत्यावर्तन नहीं हो सकता था तथा काया को तह लगाई पोशाक की तरह भूमि पर छोड़ दिया गया।'

अपने सेवक-शिष्य-संन्यासी को स्वामी विवेकानन्द के कहे अन्तिम शब्द ये थे : 'मेरे पुकारने तक प्रतीक्षा और ध्यान करो।'

- स्वामी चेतनानन्द

वेदान्त सोसायटी
दक्षिण केलीफोर्निया
स्वामी विवेकानन्द जन्मतिथि
जनवरी १४, १९७४

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