विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
ध्यान के लिये उपयोगी निर्देश
शिष्य - ध्यान का वास्तविक स्वरूप क्या है?
स्वामीजी - किसी विषय पर मन को एकाग्र करना ही ध्यान है। यदि मन किसी एक विषय पर एकाग्रता प्राप्त कर लेता है तो इसे किसी भी विषय पर एकाग्र किया जा सकता है।
शिष्य - शास्त्र में विषय और निर्विषय भेद से दो प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। इनका क्या अर्थ है तथा इन दोनों में कौन-सा श्रेष्ठ है?
स्वामीजी - पहले मन के समक्ष किसी एक विषय का आश्रय कर ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है। एक समय मै किसी काले बिन्दु पर अपने मन को एकाग्र किया करता था। अन्ततः उन दिनों मुझे वह बिन्दु दिखना बन्द हो गया तथा उसे मैं अपने समक्ष पाता ही न था मन का अस्तित्व ही न रहता था - सङ्कल्प की कोई तरङ्ग न उठती थी, मानो निवात समुद्र के समान मन का पूर्ण निरोध हो जाता था। ऐसी अवस्था में मुझे अतीन्द्रिय सत्य की झलकियों की अनुभूति हुआ करती थी। अतः मैं सोचता कि किसी साधारण से बाह्य विषय पर ध्यान का अभ्यास भी मानसिक एकाग्रता में फलित होता है। परन्तु यह सत्य है कि जिसका जिसमें मन लगता है उसीके ध्यान का अभ्यास करने से मन अति सहज में ही शान्ति प्राप्त कर लेता है। इसीलिये हमारे देश में इतने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पूजने की व्यवस्था है। मुख्य उद्देश्य तो मन को वृत्तिहीन करना है; किन्तु किसी विषय में तन्मय हुए बिना यह सम्भव नहीं है।
शिष्य - परन्तु मनोवृत्ति पूर्णतया विषयाकार होने से मन में ब्रह्म की धारणा कैसे हो सकती है?
स्वामीजी - हाँ, यद्यपि पहले तो मन बाह्य विषय के साथ तदाकार होता है परन्तु बाद में उस वस्तु या विषय की संज्ञा का लोप हो जाता है, तब केवल 'अस्ति' मात्र का ही बोध रहता है। (६.४३-४४)
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